Thursday 24 April 2014

वो यहीं फुटपाथ पर ही रहती है !!!



  जयंती रोजाना कुछ सब्जियां खरीद कर लाती है और सुबह से शाम तक दादर रेलवे स्टेशन के बाहर बैठ कर बेचती है...क्योंकि सब्जी बहुत ही थोड़ी सी होती है ..इसलिए बेचने में जयंती को काफी मेहनत करनी पड जाती है..और सबसे बड़ी बात की रेलवे स्टेशन के बाहर ही एक बड़ी सी सब्जी मंडी भी है...तो ऐसे में लोग बड़ी दुकान से लेना ज्यादा पसंद करते हैं. जिसकी वजह से जयंती कि मेहनत और भी बढ़ जाती है. अपनी सब्जी बेचने के लिए वो कभी मराठी गीत गाती है तो कभी लोगों को बुला-बुला कर बातें करती है...और अगर कोई आ जाये तो...उसकी इतनी तारीफ करती है कि उसे कुछ न कुछ खरीदना पड़ ही जाता है...शाम को सब्जी को बेचकर वो घर कि ओर चल पड़ती है..घर भी उसका 8-10 कदम कि दूरी पर ही है. तो कोई परेशानी नहीं होती आने जाने में...और इसी तरह उसकी ज़िन्दगी चल रही है..पिछले 9 सालों से.
दरअसल जयंती एक 70-75 साल कि बूढी औरत है..जिस से अब तो चला भी नहीं जाता ठीक से...मुंह में मुश्किल से 3-4 दांत होंगे. जयंती यहीं  दादर के फुटपाथ पर ही रहती है पिछले 8-9 बरसों से यही उसका घर है. और वहीँ सब्जी बेच कर अपना गुज़ारा करती है...ठीक से चला फिर तक नहीं जाता है लेकिन लाठी लेकर चलती है...और रोजाना लगभग 30 किलोमीटर का सफ़र तय करके रोजाना मीरा रोड से सब्जी खरीद कर लाती है और बेचती है. और इसी कि सहारे उसकी ज़िन्दगी चले जा रही है...एक दिन शाम को ऑफिस से लौट रही थी तो लगभग पौने नौ हो चुके थे ..और दादर की मार्किट लगभग बंद हो चुका. लेकिन 1-2 सब्जी कि दुकान फुटपाथ पर खुली दिख रही थीं..जो बंद होने को ही थीं. उनमें एक जयंती कि दुकान भी थी..दो बोरियों को एक साथ बिछा कर उनपर सब्जी को बड़ी तरतीब से सजा कर रखती है हमेशा...मैं उसके बराबर से गुजरी ही थी कि  कहने लगी एक बेबी...ये  देख न कितनी अच्छी भेंडी है ...लेजा....सारा 10 रुपये में.” हालाँकि मुझे भिन्डी बनानी नहीं आती लेकिन ... मन किया कि ले ही लूँ. मैं लेने के लिए उसके पास बैठी कि उसने कहा “ये अदरक भी लेती जा...10 का बटा है..लेकिन तू 7 रुपये में ले ले.”  उसे देख कर मैं सिर्फ मुस्कुराई इस से पहले अक्सर कुछ न कुछ खरीद ही लेती थी मैं उस से ....हालाँकि कुछ खास अच्छी सब्जी होती नहीं थी लेकिन फिर भी जयंती से सब्जी लेने में थोडा अच्छा सा ही लगता था...बहरहाल आज थोडा मौका मिल ही गया था कि उस से बात कर लूँ...तो मैंने बातों बातों में ही पूछा कि “काकी रहती यहीं हो क्या...” तो जयंती ने बड़े रूखे से स्वर में जवाब दिया... “ हाँ बेबी... इथेत्स स रहणार ....नाई त कुठे ज्यांणार !!” बहुत अच्छी मराठी नहीं आती थी लेकिन पिछले 10 महीनों में थोड़ी बहुत तो सीख ही गयी हूँ ... मैंने फिर पुछा “तुमसा घर कुठे आहे काकी....तुम्ही कधी घरी ज़ात नाही का?”   फिर वो कहने लगी “था रे....अभी नहीं है..” इस बार आवाज़ थोड़ी भर्रा सी गयी थी....मैंने कुछ नहीं कहा और अदरक छांटने लगी , वो फिर कहने लगी “बेटा इतना अच्छा है कि कह दिया...आई अब तू घर से चली ही जा...और अबी मैं इधर ही रेती है .” उसकी इतनी बात सुनकर उस से कुछ और बात करने कि हिम्मत ही नहीं हुई मेरी. मैंने पैसे दिए और चली आई...रास्ते भर सोचती हुई आई कि कोई ऐसा कैसे हो सकता है कि इस उम्र में अपने बुज़ुर्ग माँ बाप को अनाथों कि तरह छोड़ दे. मुंबई में ये कोई नयी बात नहीं है ..आपको हजारों कि संख्या में ऐसे बुज़ुर्ग दिख जायेंगे जो घर छोड़ कर आ गए हैं...और अपने जीवन के इस कठिन पड़ाव में अकेले ना जाने कैसे-कैसे जी रहे हैं...कोई कचरा उठा कर अपने जीवन का निर्वाह कर रहा है तो कोई बेलदारी कर के....कोई स्टेशन के बहार झाड़ू लगता हुआ मिल जाता है तो कोई चौकीदारी..कोई मच्छी बेचता हुआ तो कोई फुतपाथ पर रुमाल...जून कि धुप में कोई पान बेच रहा है ...तो कोई जुलाई कि बरसातों में सब्जी.
पिछली जुलाई कि ही बात है शायद जब यहाँ आये मुझे एक महीना भर ही हुआ था...तब मुंबई सेन्ट्रल स्टेशन पर एक 55-60 साल कि औरत वहां बैठी हुई थी..अपना सामन ले कर और सबसे महत्वपूर्ण बात उस औरत को ना तो हिंदी आती थी न मराठी और ना ही अंग्रेजी...अब कोई उस से बात करे भी तो कैसे....लोगों का हुजूम लगा हुआ था...जैसे तैसे करके उस से इतना भर समझ आया कि यहाँ शायद उसका बेटा रहता है...और जिसने उसे यहाँ बुला तो लिया है लेकिन ..वापस लेने नहीं आया . और उसे बैठे हुए पूरा दिन हो चुका था ....अगले ही दिन मैं रेडियो पर मलिश्का को सुन रही थी तो रेडिओ पर उसने वहां इस बात का ज़िक्र किया कि वो औरत अभी भी वहीँ बैठी है..जो ना तो कुछ खा रही है ...ना पी रही है और ना ही कहीं जाने को तैयार है.
अब ऐसे में क्या सोचा जाये .. कि आज कि पीढ़ी अपने संस्कारों और मार्मिकता को भूलती जा रही है...उन इंसान को कुछ नहीं समझ रही जिन्होंने तुम्हे तब भी समझा जब तुम बोलना तक नहीं जानते थे.... उम्र कि ऐसे पड़ाव में जहाँ आपके माता-पिता को आपकी सबसे ज्यादा ज़रुरत होती है वहां तुम उनका साथ छोड़ देते हो..............

3 comments:

prashant singh said...

Content is good like always. A good emotional story that thrills hearts. but you need to improvise your editing skills and grammatical usages. Instead of being over reactionary u need to be more precise and to the point. Good going.....good luck.

Dolly Bansiwar said...
This comment has been removed by the author.
Dolly Bansiwar said...

Thank you so much Prashant ji :)