Saturday 24 August 2013

रेप और सेक्स में फर्क है !!!

       मुंबई की शक्ति मिल में कल रात हुए बलात्कार के बाद आज भारत इस मुद्दे पर फिर से बात करता हुआ नज़र आ रहा है. तो साथ ही  दूसरी ओर दबी आवाज़ों में ये भी सुनने को मिल जाता है की रात को वहां करने क्या गयी थी?'' कुछ ऐसी ही बातें दिल्ली में पिछले साल हुए बलात्कार के बाद सुन ने को मिली थीं कि "इतनी शरीफ थी तो रात को लड़के के साथ फिल्म देखने जाने की ज़रूरत क्या थी भला". हालाँकि पिछले दो महीनों से यहाँ हूँ तो इतना तो देख ही सकती हूँ  कि मुंबई का माहौल दिल्ली के मुकाबले कुछ बेहतर है. बेहतर केवल सुरक्षा में नहीं. बल्कि आजादी के मामले में भी है.लेकिन उतनी सुरक्षा यहाँ भी नहीं है ..जिसका ज्वलंत उदाहरण 22 वर्षीय फोटोग्राफर ट्रेनी के साथ हुआ हादसा है. रेप होना कोई नयी बात नहीं है. युगों से पुरुषवादी सोच रखने वाले ऐसा करते आ रहे हैं. फिर चाहे वो राक्षस जाति के रहें हों या देवता रहे हों. और फिर उसी सोच के लोग स्त्री को ही पवित्रता की कसौटी पर कसते हैं और कलंकित होने के साथ-साथ पीढिता को ही गुनेहगार भी साबित कर दिया जाता है कि हो न हो इसी की गलती रही होगी कहीं न कहीं...उत्तेजक कपडे पहने होंगे, या फिर कौन सी ये सती-सावित्री थी.

   आज लोग खुद को कितना ही कल्चरल कह लें. लेकिन भारतीय समाज में स्त्री विरोधी हिंसा की जो भयावहता को रोज़मर्रा की जिंदगी में अपनजनक और संवेदनहीन भाषा में देखा जा सकता है, देखा जा सकता है आम तौर पर होने वाली चर्चाओं में. नेताओं के भाषणों में. और गालियों  के अम्बार तो महिलाओं को ध्यान में रख कर ही भरे गए हैं. अब अगर दूसरी और देखें तो ये अपमानजनक भाषा केवल शब्दों तक ही सीमित नहीं है बल्कि प्रेक्टिकल और साइकोलोजिकल रूप में भी देखी जा सकती है. आम तौर पर होने वाली छेड़खानी से लेकर बलात्कारों तक में देख सकते हैं. वहीँ मनोवैज्ञानिक रूप में देखें तो इस मनोवैज्ञानिक रूप तो और भी भयावह रूप होता है. जिसमे ऐसी विचार उपजते हैं और विचारधारा बना डालते हैं. फिर यही  विचार साथ चलते हैं और विरासतों में मिलते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी.  और ऐसा ही नहीं है की असभ्य लोग ऐसा करते हैं. साहित्य  की हास्य कविताओं में देखा जाये तो अक्सर  स्त्री का मजाक उड़ते हुए देख सकते हैं. और दूर ही क्यों जाएँ? सोशल नेटवर्किंग साइट्स या मोबाइल्स पर आने वाले SMS लगभग इसी प्रकार के होते हैं. गंभीर माहौल को हल्का करने के लिए भी इसी प्रकार की बातें की जाती हैं, छींटाकशी की जाती है.
        इसी भाषा का एक उदहारण  पिछले दिनों हुए JNU  की छात्रा पर कक्षा में हुए हमले का ले सकते हैं. माना जाता है जे एन यू का कल्चर बेहद स्वतंत्र किस्म का है, समान है . लेकिन मानसिक रूप से समानता वहां भी नहीं है. और लैंगिक रूप से तो बिलकुल नहीं. वरना इस प्रकार की घटना देखने को ना मिलती.  लड़के ने तैश में आकर कुल्हाड़ी से लड़की पर वार किया. और वजह क्या थी? लड़का लड़की से प्यार का इज़हार कर सकता है. गर्लफ्रेंड होने के बावजूद चार लड़कियों के साथ घूम सकता है, बात कर सकता है लेकिन लड़की ऐसा करती है तो उस पर कुल्हाड़ी से  वार किया जाता है. प्रेम के लिए तैयार नहीं हो तो चेहरे पर तेजाब फेंक दिया जाता है. और अगर सुनसान जगह पर कहीं मिल गयी है तो गिद्धों और भेड़ियों की तरह नोंच लिया जाता है.
    सबसे बड़ी हैरानी तो तब होती है जब लोग सेक्स और रेप को एक ही तराजू में तोल कर देखने लगते हैं. एक ही श्रेणी में रखने लगते हैं. अगर कोई लड़की किसी अपनी मर्ज़ी से सेक्स को तवज्जो देती है. तो इसमें उसकी अपनी सहमती, मर्ज़ी और ख़ुशी शामिल होती है. लेकिन इस बात का समीकरण इस बात से नहीं बैठाया जा सकता की कोई भी आकर उसके साथ ज़बरन सेक्स कर लेगा. उसे भी पूरा हक़ है अपना साथी चुनने का. लड़की अगर रात को अकेली या किसी के साथ घूम रही है तो इसे पूरी पूरी आज़ादी है एक लड़के के जितनी. अगर वो घूम रही है तो इस का मतलब ये नहीं  है की  उसे पकड़कर उसके साथ बलात्कार कर दिया जाये. यहाँ लोगों को इस बात को बारीकी से समझने की ज़रूरत है की सेक्स और बलात्कार में फर्क है.
    और अब हम बात करें सभ्य लोगों की तो नारे लगाने और केंडल जलाने तो पहुँच जाते हैं. लेकिन अगर वहीँ किसी नारा लगाती हुई लड़की का अन्तः-वस्त्र दिख जाता है तो अन्दर का जानवर जागते देर नहीं लगती.  ऐसा नहीं है की विदेशों में बलात्कार नहीं होते. बेशक होते हैं. लेकिन वहां कम से कम इस प्रकार की सोच नहीं है कि. अगर किसी के साथ ज्यादती हुई है तो ... उसकी पीढ़ा को अनदेखा करते हुए उसी पर इलज़ाम लगाने शुरू कर दें.
 गंभीरता से सोचा जाये तो पाएंगे की ये उपहास मात्र स्त्री जाति का नहीं है बल्कि एक पूरी सभ्यता का उपहास है. हमें ज़रूरत है अपने गिरेबानों में झाँक कर देखने की. और अन्तः मन को टटोल कर देखने की. दूसरों पर इलज़ाम लगाना आसान है. लेकिन उस इलज़ाम को जीना कितना मुश्किल है. ज़रूरत है देश की  आधी आबादी को इज्ज़त की नज़र से देखने की. उसे समानता देने की. न सिर्फ कागजों में बल्कि व्यावहारिक रूप से भी.

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