Monday 29 February 2016

न कोई आहट, न कोई दस्तक !!


तुम वो ख़ामोश शख़्सियत हो,
जो बरबक्स बातें करती है,
जो ख़ामोश रहने पर बोलती है,
और बोलने पर ख़ामोश रहती है,
अक्सर तुमसे बनती है,
और बनकर बिगड़ जाती है,
एक तस्कीं सी है, बातों में 
और ख़ामोशी दरम्याँ,
कोशिश जितनी भी करूँ समझने की,
गिरहें उतनी उलझती हैं,
मानों अब उनकी हिरासत में हूँ,
शायद इन्ही तान-बान में कैद हूँ,
मैं कोशिश करती हूँ,
दरकिनार होने की,
लेकिन,
हर बार तुम ज़हन के दर पर आकर
कहते हो – “सुनो....”
मैं हर बार उस मोड़ पर आकर रुक जाती हूँ,
मेरे वीरान से शहर में,
अचानक एक साए की तरह आये हो,
न कोई आहट, न कोई दस्तक  !!

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