हिंदी धारावाहिक आज के
टेलीविज़न दर्शक कि ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन चुका है. जीवनचर्या से
लेकर जीवनशैली तक को प्रभावित करते हुए दिखाई दिए जाते हैं. देखा जाये तो धारावाहिकों कि दुनिया आज हर
घर में अपना घर कर चुकी है. फिल्मों कि तर्ज पर ही आज कल एक धारावाहिक को बनाने में लगने वाली लागत भी काफी
बढ़ गयी है. साथ-ही-साथ प्रतिद्वंदी चैनलों कि होड़ में अपना धरवाहिक अच्छा बनाने कि चिंता हमेशा खाए जाती है चैनलों को. कहानियों को एक तरफ रखें तो हर धारावाहिक एक अलग
पृष्ठभूमि पर आधारित होता है. देश के अलग-अलग प्रान्तों का प्रतिनिधित्व करते हुए
दिखाई दिए जाते हैं. राजस्थान,उत्तरप्रदेश,हरियाणा,पंजाब,मध्यप्रदेश,गुजरात,बिहार
और मुंबई. वहां के कुछेक रीती-रिवाजों से भी दर्शकों से परिचित करवाया जाता
है...लेकिन जब बात आती है उस प्रांत कि भाषा और भाषा कि बारीकियों की..तो इस
क्षेत्र में धारावाहिक अपने दर्शकों को काफी निराश करते हैं. बनाने वाले इस बात का
ध्यान नहीं रखते हैं कि हम जिस प्रान्त कि भाषा को दर्शकों को दिखने जा रहे हैं उस
प्रान्त में कितनी ही बोलियाँ बोली जाती हैं. खासकर बात अगर उत्तरप्रदेश कि करें
तो इस एक प्रान्त में ना जाने कितनी ही बोलियाँ और उनकी उपबोलियाँ मौजूद हैं. एक तरफ
उत्तरप्रदेश राजस्थान से मिलता है..तो दूसरी तरफ मध्यप्रदेश,दिल्ली ,उत्तराखंड और बिहार से ..वहीँ एक हिस्सा नेपाल कि सीमा
रेखा से भी मिलता है.तो ऐसे मात्र एक उत्तरप्रदेश में ही इन सभी राज्यों कि बोलियों
का प्रभाव है. लेकिन जब धारावाहिकों में अगर उत्तरप्रदेश को दिखाया जाता है तो उसे
पता नहीं क्यों बिहार कि भोजपुरी के रूप में क्यों दिखाया जाता है. वहीँ यूपी और
बिहार कि बोलियों में इतना कन्फ्यूशन दिखाया जाता है दर्शक को कि वो समाझ ही नहीं
पता है. वहीँ राजस्थानी बोलियों को देखें तो हिंदी धारावाहिकों ने बड़ी अजीब सी
तस्वीर बना दी है दर्शकों के दिमाग में. ऐसे में ये बातें एक दर्शक को काफी निराश
करती हैं. फिल्मों में भी बोलियों का पुट डाला जाता है लेकिन वहां कलाकार उस तकनीक पर मेहनत करते हैं. जो दर्शकों
को काफी पसंद भी आता है. वहीँ दूसरी ओर धारावाहिकों के कलाकारों द्वारा बोली जाने
वाली तकनीक उस बोली कि आत्मा को ही मारती हुई सी ही दिखाई देती है....
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