Monday 23 October 2017

राजधानी का टिकट



ट्रेन का सफ़र हर दफे अलग होता है। कुछ सीट्स पर सुकून से बैठे लोग, विलाप मचाते बच्चे, उन्हें चुप करवाने की भरसक प्रयास करती उनकी माएँ, हो हल्ला मचाता दोस्तों का एक झुंड । अपनेबच्चों को लगातार खाखरा फ़फड़ा खिलाती गुजराती आंटी । देश की राजनीति पर गहन चिन्तन करते कुछ राजनैतिक विद्वान । और इन सबसे परे दरवाज़े और बाथरूम पास बैठे वो पैसेंजर जिनकी सीट या तो क्लीयर नहीं हुई होती या किसी मजबूरी में चढ़ने वाले लोग ।

एक बार मुंबई से कोटा आ रही थी। लेकिन ट्रेन छूट गयी थी । जाना बहुत ज़रूरी था इसीलिए अगली ट्रेन में बिना टिकट के चढ़ गयी । कोच के बाहर मैं भी दरवाज़े पर बैठी थी ।जो लोग टॉयलेट इस्तेमाल करने आ रहे थे मुझे ऐसी हीन निगाहों से देख रहे थे मानों दुनिया की सबसे निरीह प्राणी मैं ही हूँ। एक आदमी ने कहा अंदर कोच में जाकर बैठ जाओ आपका यहाँ बैठना ठीक नहीं। मैं बोरिया बिस्तर लेकर अंदर तो आ गयी ; लेकिन क्योंकि ट्रेन राजधानी थी इसीलिए बिना टिकट के टीटी साँस भी नहीं लेने देता । स्लीपर क्लास में आप लोकल टिकट लेकर कम से कम चढ़ सकते हैं और ट्रेन में टिकट बनवा सकते हैं । अब बिना टिकट के ट्रेन में चढ़ कर जुर्म तो कर ही चुकी थी ।ऊपर से टी॰टी॰ ने टिकट का दोगुना फ़ाइन लगा दिया । पर्स में बमुश्किल नौ सौ रुपए थे । टी॰टी॰ भी कर्तव्य और इरादों का पक्का था। कह दिया अगले स्टेशन पर उतरो या फ़ाइन दो ।जब आस पास के लोगों ने देखा तो बिना जान पहचान के भी उन्होंने मेरे लिए पैसे देकर टी॰टी॰ को रफ़ा दफ़ा किया । एक बन्दे ने अपनी सीट मुझे देकर ख़ुद नीचे फ़र्श पर सोया ।

हालाँकि कोटा पहुँच कर दोस्त से पैसे लेकर उन्हें लौटा दिए थे । लेकिन वो सफ़र ज़िंदगी के सबसे यादगार सफ़रों में से एक है । इसीलिए जब भी ट्रेन में सफ़र करती हूँ कोशिश करती हूँ कि जिनकी सीट्स नहीं हो पायीं उनकी मदद कर सकूँ ।






PS: हालाँकि उस दोस्त के पैसे मैंने अब तक नहीं लौटाए।





दंगल का चीन में मंगल



फिल्म दंगल कुछ वक्त पहले चीन में रिलीज़ हुई और फिल्म को मिली दर्शकों की प्रतिक्रिया वाकई आश्चर्यजनक थी. दंगल चीन में 'शुए जिआओ बाबा' के टाइटल से रिलीज़ हुई थी , जिसका हिंदी में अनुवाद है 'आओ बाबा कुश्ती लड़ें।' और सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि चीन में इस फिल्म ने तकरीबन 700 करोड़ की कमाई का आंकड़ा पार किया । 'दंगल' पहली भारतीय फिल्म रही, जिसे चीन में सबसे ज्यादा स्क्रीन्स मिले . दंगल चीन में तकरीबन 9000 स्क्रीन पर रिलीज़ हुई . यदि चीन में हुई इस कलेक्शन को वर्ल्ड कलेक्शन से मिला दें फिल्म तकरीबन 1500 करोड़ रुपये के कमाई के आंकड़ों को पार कर चुकी है. वैसे हाल ही में दुनिया भर में ख्याति बटोरने वाली राजामौली की फिल्म ‘बाहुबली-2' ने भी इस आंकड़े को पार कर लिया था. गौरतलब है कि दंगल चीन में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली नॉन-हॉलीवुड फिल्म बन कर उभरी. 


अब ध्यान देने वाली बात ये है कि साधारण सी दिखने वाली फिल्म में चीन को ऐसा क्या भाया जिसे इतनी सराहना मिली. फिल्म में न तो कोई चमक-धमक है, न ही फिल्म में मदहोश कर देने वाले गीत और न ही ऐसा कोई संगीत. जिसे आज के पॉपुलर कल्चर में हाथों हाथ लिया जाए. एक सफ़ेद दाढ़ी में दिखने वाला एक बाप जो अपनी बेटियों के भविष्य को सुधारने के लिए समाज से भिड़ जाता है, साथ ही दंगल में तकनीक का नाममात्र इस्तेमाल किया गया था , जिसमें गांव-देहात की जीवनचर्या को दिखाया गया. और दरअसल यही बात चीन के दर्शकों को फिल्म के बारे में सबसे अच्छी लगी. क्योंकि फिल्म न सिर्फ भवनात्मक रूप से जोडती है, बल्कि सामाजिक रूप से भी चीन के दर्शक को आत्मसात करती है. देखा जाये तो चीन में महिला संबंधी मुद्दों पर बनने वाली फिल्में अधिक पसंद की जाती हैं. फिल्म में दर्शकों ने गीता-बबीता और महावीर के संघर्ष को खुद को चीन क्रांति से की सामाजिक व्यवस्था से जोड़कर देखा और कहीं न कहीं खुद को भी वहीँ पाया . गौरतलब है कि चीन की क्रांति से पहले चीन में भी महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय थी. उन्हें न सिर्फ घर की एक शोभावस्तु माना जाता था बल्कि आगे बढ़ने से हमेशा घर और समाज से लड़ना पड़ता था. लेकिन अपने संघर्ष के बल पर आज चीनी महिलाएं न सिर्फ देश के आर्थिक निर्माण में बड़ी भूमिका अदा कर रही हैं, बल्कि अब पूरे चीन के मजदूरों व कर्मचारियों का लगभग आधा भाग महिलाएं हैं . इस से जाहिर है कि चीन में महिलाओं को पुरूषों के समान रोजगार का मौका मिला तो है लेकिन एक लम्बे संघर्ष के बाद और आज उनकी आर्थिक स्थिति भी उन्नत हुई है. ग्रामीण क्षेत्रों में उद्यमों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ बहुत सी महिला किसान मजदूरों के पांत में शामिल हुई और वे ग्रामीण विकास को बढावा देने की मुख्य शक्ति बनी । और यही संघर्ष हम फिल्म के मुख्य किरदारों की ज़िन्दगी में भी देख सकते हैं . और शायद यही वजह चीनी लोगों को इस फिल्म से गहराई से जोड़ने में कामयाब हुई .


फिल्म के ज़रिये लेखक ने ऐसे कई मुद्दों को छूने की कोशिश की है जिसे देख कर कोई भी दर्शक भावुक हो उठता है. और ये मुद्दे न सिर्फ एक पटकथा का एक अंश हैं बल्कि भारतीय समाज का एक हिस्सा हैं. फिर चाहे वो सांस्कृतिक हो, आर्थिक हो या सामाजिक हो. और सबसे बड़ी बात ये भी है कि एशियाई देशों की बहुत सी बातें मिलती जुलती भी हैं. उदाहरणस्वरुप; बच्चों की सफलताओं से अभिभावकों की उम्मीदें और आशाएं.


फिल्म लेखक अंजुम राजबाली के अनुसार “हिंदी सिनेमा के हीरो का किरदार अब और जटिल हो रहा है पहले एक्शन फ़िल्मों में बदले की भावना पर अनगिनत फ़िल्में बनीं. 'दीवार' में नायक का गुस्सा उसका दुश्मन है, लेकिन अंत में मदनपुरी की मौत तो तय थी. 'शोले' में भी ठाकुर के व्यक्तिगत बदले के बल पर ही कहानी और किरदार बनते मिटते हैं .. पुरानी फिल्मों में जो ताकत नायक के विरोध में खड़ी हुआ करती थी जिसे हम खलनायक के रूप में देखा करते थे, लेकिन अब ये खूबी या खामी खुद हीरो के अंदर ही होती है. नायक के किरदार की अपनी एक जर्नी होती है, आज का नायक कुछ साबित करना चाहता है जो खुद के लिए ज़रूरी है. कभी वह अपने गिल्ट से मुक्ति चाहता है तो कभी उसकी नाकामी ही उसे सब बदल देने की प्रेरणा देती है."


वहीँ दूसरी ओर देखा जाये तो आमिर खान की लोकप्रियता चीन के युवाओं में अच्छी खासी है और कहीं न कहीं फिल्म के सफल होने में ये भी एक महत्वपूर्ण कारक रहा. क्योंकि इस से पहले थ्री-इडियट्स ने आमिर खान को चीन में बुलंदियों पर पहुंचा दिया था. जो नौजवानों में काफी लोकप्रिय सिद्ध साबित हुई थी. फिल्म को थिएटरों से ज्यादा ऑनलाइन देखा गया और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि फिल्म चीन की 12वीं सबसे पसंदीदा फिल्मों की फेहरिस्त में शामिल हो गयी थी. इसके बाद ही धूम-3 ने 2000 स्क्रीनों पर कब्ज़ा कर लगभग 3.8 मिलयन डॉलर का बिज़नेस किया. इसके बाद PK को तकरीबन 4600 स्क्रीन से ज्यादा पर रिलीज़ किया गया और फिल्म ने फिर से तकरीबन 1200 करोड रुपये कमाए और ये कोई आम बात नहीं हिंदी सिनेमा के लिये.


फिल्म समीक्षक रॉब केन का मानना है कि “आमिर की फिल्में चीनी लोगों से सीधा संवाद करती हुई नज़र आती हैं. जो न चीन की अपनी फ़िल्में कर पाती हैं और न ही हॉलीवुड की फिल्में.”


आमिर खान की ये बात भी सराहनीय है कि उनकी हर फिल्म का चयन वाकई बहुत उम्दा होता है. साल में एक फिल्म और बेहतरीन फिल्म देने के कारण उनकी फिल्में कहीं न कहीं भारतीय समाज की बुराइयों और परेशानियों को बेबाकी से पेश करते हैं. चीनी लोग इनके जरिए अपने समाज की झलक भी पाते हैं.


हम पाते हैं दंगल ने न सिर्फ सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक रूप से अपनी छाप चीन पर नहीं छोड़ी है बल्कि राजनैतिक रूप से भी दंगल काफी सशक्त रूप से उभर कर आई है. जिसका जीता जागता सबूत है कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो स्थाई समिति के सदस्य लियू युनशान का कहना कि 'दंगल' हाल ही में चीन में प्रदर्शित सबसे सफल और प्रभावशाली फिल्मों में से एक है. भारत और उसके मीडिया को फिल्म की उपलब्धियों पर गर्व होना चाहिए. यह ब्रिक्स देशों के बीच सहयोग का एक बड़ा उदाहरण है. हमें और मीडिया के लोगों को इस फिल्म को अधिक कवरेज देना चाहिए.


इसके साथ ही फिल्म 'दंगल' की तारीफ चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कर चुके थे कि उन्होंने आमिर खान अभिनीत फिल्म 'दंगल' देखी और उन्हें यह पसंद आई.


भारत और चीन के बीच अनेक मतभेद होने के बावजूद आज यदि दोनों देशों के दर्शक सिनेमा केभारतीय ज़रिये करीब आ रहे हैं तो ये भारतीय सिनेमा के लिये एक बहुत बड़ी उपलब्धि की बात है. चीन के लोगों का रंग, परिधान, भाषा, परिवेश आदि अलग होने के बावजूद भावनाएं काफी कुछ मिलती जुलती हैं इस बात को चीन में दंगल की सफलता ने साबित कर दिया है .








Monday 19 June 2017

लड़कियों वाली हिपोक्रेसी



कुछ दिनों पहले एक दोस्त से बात हो रही थीं. कह रहा था कि एक्स-प्रेमिका पिछले आठ-दस  दिनों से अक्सर फोन कर रही है. अब मतलब एक्स थी तो ब्रेक -अप भी हुआ ही होगा शायद .  दरअसल ब्रेक-अप हुआ ही नहीं था. परेशानी ये थी की लड़की काफी काबिल थी और लड़का अपने  स्ट्रगल पीरियड से गुज़र रहा था. लड़की ने पिछले एक साल से बात ही नहीं की और जब लड़का.  बात करने की कोशिश करता भी तो वो घर वालों का डर दिखाने लगती थी. आज लड़का कुछ  कर रहा है. थोडा सा कामयाब हो रहा है तो लड़की फिर से कांटेक्ट करने कि कोशिश कर रही है.  अब बात करते हैं अपने सामाजिक ढांचे की जहाँ दहेज़ लेना और देना दोनों ही बुरी बात हैं.  लड़की पढ़ी-लिखी है, कमाती है. ऐसे में लड़का अगर दहेज़ लेता है तो वो और उसका परिवार दोनों ही सज़ा के काबिल हैं . लड़की पढ़ी लिखी कमाऊ नहीं भी है और लड़के वाले दहेज़ ले रहे हैं.  तब तो और भी सजा के काबिल है. ये होना ही चाहिए क्योंकि दहेज़ प्रथा की शुरुआत एक सकारात्मक तरीके से हुई लेकिन समाज ने उसे सहूलियत और ज़रुरत के हिसाब से एक दूसरा  ही अनजाम बना डाला. जहाँ दहेज़ भेंट नहीं बल्कि लड़की के माँ- बाप के लिए एक अभिशाप  बन कर सामने आई और जिसके कारण न जाने कितनी बेटियों ने जान कि अहूती दी. लेकिन  हमें दूसरे पक्ष की तरफ़ भी देखना चाहिए. 

अक्सर लड़कियां कहती हुई मिल जाएँगी कि ये पुरूषों कि बनायीं हुई हिप्पोक्रेट दुनिया है जहाँ  लड़के खूबसूरत पढ़ी लिखी लड़की ही चाहते हैं. हाँ बेशक है, मर्दों ने इसे अपने हिसाब से बनाया  है और औरतों को उसी के अनुसार रहने के लिए उनकी सोच बना डाली है. लेकिन मुझे तब  समझ नहीं आता जब लड़कियां अपना बॉयफ्रेंड 'टॉल, डार्क, हैंड्सम' ढूंढती हैं. वो पढ़ा लिखा होना चाहिए, कमाऊ होना चाहिए, घर जागीर होनी चाहिए और खुले विचारों वाला तो होना ही चाहिए.

क्यों भाई? तब तुम्हारी हिप्पोक्रेसी नहीं होती ये ? तुम उस दौरान उस लड़के का साथ नहीं दे सकती जो उसका स्ट्रगल का वक्त है ? जब उसे तुम्हारी सबसे ज्यादा ज़रुरत होती है ! उस वक्त  आपको वेल सेटल्ड लड़का चाहिए.... जब तक चला तब तक चला जब घर वालों ने अच्छा लड़का खोज लिया तो शादी उस से कर ली.  ठीक वैसे ही...आजकल तलाक के किस्सों में दूसरा पहलु भी दिखने लगा है. अब तक लड़के ही  लड़कियों को छोड़ते हुए दिखते थे. तब अक्सर लेखक सिर्फ औरतों का ही रोना रोते थे. लेकिन  दूसरे पहलु को अक्सर अनदेखा कर जाते थे. सोचा है कभी उस लड़के के घर वालों पर क्या  गुज़रती होगी. वो किस ट्रामा से गुज़रते हैं ? क्योंकि मर्द अक्सर तलाक़ देते हैं ...उनके एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर होते हैं...इसीलिए सबको एक लकड़ी से हांकना शुरू कर दिया...लड़के वाले दहेज़  भी न लें और जब आपकी बेटी तलाक लेना चाहे तो उसे मुआवज़े में पैसा भी लड़के वाले ही दें!

ये आपकी हिप्पोक्रेसी नहीं है ?

समाज एक सोच से नहीं चलता...तुम अपनी दसों उँगलियाँ घी में रखना चाहती हो ...और सिर  कढाई में ...अगले बन्दे को अकेला बंजर में छोड़ कर. एक औरत होने के नाते हम अपने  अधिकार आज मांग ही नहीं रहे, हम लड़कर ले रहे हैं. ऐसे में हमें ज़रुरत है कि हम सामने  वाले के अधिकारों कि भी उतनी ही इज्ज़त करें. क्योंकि हम जो मांग रहे हैं वो हमारे हक़ हैं  लेकिन हमारा कोई हक नहीं बनता कि हम दूसरों के हकों को छीनें या उनका गलत फायदा  उठायें. देखा जाए तो समाज में पुरुष भी औरतों को उनके हकों कि पाने कि कवायत में उनके  साथ हैं.

जब हम कहते हैं कि एक एमसीपी से शादी नहीं करेंगे तो यहाँ हमें भी अपने खयालातों को लेकर लिबरल बनना चाहिए. आज क्योंकि ‘विमेंस डे’ है तो वुमनहुड को गर्व और सम्मान के  साथ हमें मानना चाहिए. जहाँ औरत के अधिकार और समानता की बात आती है, वहां हमें पीछे  नहीं हटना चाहिए. शुरुआत हमसे होगी और हमें ही करनी होगी. क्यों न आज एक दृढ निश्चय  ये लें कि आज से अगर हम किसी के घर कि ‘बाई’ नहीं बनना चाहती तो किसी को एटीएम भी  नहीं समझना चाहिए. पुरूषों की जवाबदेही उन्ही की भाषा में करनी होगी. तभी हम अपनी आने  वाली पीढ़ी को सही मायनों में समानता का अधिकार समझा सकेंगे.

Monday 12 September 2016

बच्चियों के लिए भारत सबसे खतरनाक देशों में से एक है



जयपुर के एक संभ्रांत परिवार में  माँ ने अपनी 4 माह की बच्ची को मौत के घाट उतार, एक पुराने एसी में उसके खून से लथपथ शव को छुपा दिया. कड़ी पूछताछ के बाद माँ ने कबूला कि उसी ने बेटी की हत्या की है. गौरतलब है कि बच्ची की हत्या बेटे की चाह में की गयी थी. आरोपी महिला की एक आठ साल की एक बच्ची और भी है.


देखा जाए तो इस वाकये से दो बातें तो साफ़ होती ही हैं – पहली तो ये कि आज भी बेटी और बेटे के बीच की खायी अब तक सामाज में पट नहीं पायी है. और दूसरी ये कि अमीर या संभ्रांत वर्ग भी आज इस सोच के दायरे से बाहर नहीं निकल पाए हैं.

जहाँ एक ओर देश की  लड़कियां मेडल्स ला कर देश का नाम वैश्विक पटल पर रख रही हैं. वहीँ दूसरी ओर बेटियों को इस प्रकार मौत के घाट उतार दिया जा रहा है. हालाँकि ये समस्या कोई आज - कल की नहीं है. बेटे की चाह हमेशा से लोगों में बनी रही है. फर्क सिर्फ इतना है कि आज लोग खुद को पढ़ा-लिखा और संभ्रांत मानने के बावजूद इन बातों को तरजीह देते हैं.

एक तरफ बेटी बचाओ – बेटी पढाओ जैसे कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं. जहाँ तकरीबन 100 करोड़ रुपये का बजटीय आबंटन किया गया है. साथ ही सुकन्या समृद्धि योजना लागू की गयी है जहाँ बेटियों की पढ़ाई और उनकी शादी पर आने वाले खर्च आसानी से पूरा करने के उद्देश्य को पूरा किया जा सके . लेकिन सवाल ये उठता है कि बेटी को आखिर  किस से बचाओ? उस माँ से जिसने खुद उसे जन्म दिया हो. यहाँ लड़कियों के अस्तित्व को ख़त्म करने पर आखिर कौन तुला है? गौरतलब है की 2011 की जनगणना के अनुसार 0 -6 वर्ष की आयु समूह में सीएसआर घटने का खुलासा हुआ है. प्रति 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या घटकर 919 रह गयी है. जहाँ 2001 में प्रति 1000 लड्कों पर 927 लडकियां थीं. जहाँ अजन्मे बच्चे के लिंग  का पता लगाने वाले आधुनिक उपकरणों की उपलब्धता से कन्या भ्रूण हत्या के मामले बहुत तेज़ी से बढ़े. आर्थिक फायदों को लेकर लड़कों के प्रति सामाजिक पक्षपात हमेशा से होता रहा है. क्योंकि आज भी सामाज के ज़हन में गहरे तक पैठ बनाए हुए है कि लड़की के साथ ही जिम्मेदारियां भी  आती हैं. जन्म के साथ ही लड़कियों के साथ भेदभाव शुरू  जाता है. स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा को लेकर उनके साथ अक्सर पक्षपात होता ही है.

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि बच्चियों के लिए भारत सबसे खतरनाक देशों में से एक है. संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग के अनुसार भारत में एक से पांच साल के बीच की लड़की के मरने की आशंका लड़के की तुलना में पचहत्तर फीसदी ज्यादा है. भारत में बच्चों के अधिकारों के लिए लिए काम करने वाली संस्था 'क्राई' का अंदाज़ा है कि देश में हर साल लगभर एक करोड़ बीस लाख बच्चियाँ  पैदा होती हैं लेकिन इनमें से दस लाख एक साल के अन्दर ही मर जाती हैं. 

गौर करने वाली बात  ये  है कि सातवी कक्षा का जीव विज्ञान बता देता है कि  महिलाओं में केवल एक्स क्रोमोज़ोन होता है और लिंग तय पुरुष करता है जिसमें एक्स और वाय दोनोंन क्रोमोज़ोन हैं. हैरत  तब  होती  है जब लोग  पढ़ लिख कर भी बच्चियों के दुश्मन बन रहे हैं .

भारत में हर साल लगभग दस लाख लडकियाँ  कोख में ही मार दी जाती हैं. वहीँ दहेज़ की बलिवेदी पर हर 77 मिनट पर एक औरत की हत्या होती है. हर 29 मिनट में एक स्त्री की मर्यादा का चीरहरण होता है. भारत भर में पांच साल में बच्चों से बलात्कार के मामलों में 151 फीसदी की वृद्धि हुई है. एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2010 में दर्ज 5,484 मामलों से बढ़कर यह संख्या 2014 में 13,766 हो गई है. इसके अलावा पोक्सो एक्ट के तहत देश भर में 8,904 मामले दर्ज किए गए हैं. 

हमारे कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से अधिक है यहाँ 55 फीसदी महलाएं अन्नोत्पादन में अपने श्रम पर राष्ट्रीय भागीदारी निभा रही हैं. लेकिन लैंगिक असमानता फिर से एक बड़ा सवाल है. देश की राजनीति में महिलाओं का सशक्तिकरण नहीं दिखाई पड़ता. वर्तमान राजनीति में महिलाओं की भागीदारी 3 फ़ीसदी है. लोकसभा में 11 फ़ीसदी महिलाएं हैं जबकि राज्यसभा में लगभग 16 फ़ीसदी. कहीं न कहीं समाज भी महिलाओं की स्वतंत्रता को पचा नहीं पा रहा है ( यहाँ पुरुषों की बात नहीं हो रही, इस समाज में स्त्रियाँ भी शामिल हैं). स्त्रियों के मसले पर आधुनिक और रूढ़िवादी परम्पराओं के बीच सीधा टकराव देखा जा सकता है. पुरुष खुद ही इसे अतिक्रमण के रूप में देखता है हालंकि युवा समाज अपनी सोच में बदलाव ला रहा है. राखी के मौके पर जब साक्षी ने ओलिंपिक में मैडल जीता तो अधिकतर लड़कों ने ‘राखी का तोहफा ’ कह कर साक्षी का शुक्रिया अदा किया.

हमारे वेदों में नारी के प्रति बहुत उदात्त भावनाएं दर्शायी गयी हैं. वेद का नारी के प्रति दृष्टिकोण समन्वयवादी है. वेदों में नारी को ब्रह्मा यानि सृजनकर्ता कहा गया है , जिस प्रकार प्रजापती संसार की रचना करते हैं उसी प्रकार औरत भी मानव जाती की रचनाकार है. यजुर्वेद में भी कहा है - हे पुत्री तुम भावी  जीवन में सदा स्थिरता के साथ खड़ी रहना. आज लड़कियां विभिन्न क्षेत्रों में अपना सकारात्मक योगदान प्रदान कर रही हैं. वे आत्मनिर्भर हैं. अपने परिवार और देश का हित करने में संलग्न हैं. ऐसे में अगर पुत्रियों की अवहेलना होगी तो समाज और देश का अहित ही होगा. महिलाओं के प्रति इस प्रकार का दृष्टिकोण वाकई त्रासदी है.

आज महिलाओं और बच्चियों के अधिकारों को लेकर समाज में घोर द्वंद चल रहा है. संसद में सिर्फ कानून बना कर हम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकते हैं. इसलिए लिए औरत को खुद अपनी सोच बदलकर आगे आना होगा. सरकार कोई भी हो वह कितना लोगों की सोच को बदलेगी आखिर . प्रियंका, ऐश्वर्या दीपिका जहाँ बॉलीवुड, टॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक छाई हुई हैं वहीँ देश में बच्चियों को पैदा होते ही ख़त्म होना पड़ता है.


फ़िलहाल ज़रुरत है बेटियों के लिए ख़ास तरह के आर्थिक स्वालंबन योजनायें चलाई जाएँ, जिससे बेटियों की शादी और स्वावलंबन को लेकर समाज की चिंता को बदला जा सके. वक्त है की लोग सोच को बदलकर बेटियों को एक स्वछन्द आकाश उपलब्ध करवाएं ताकि वे खुली सोच के साथ पंछी बन उड़ान भर सकें. हमने स्त्री के लिए जो सोच बना रखी है ‘अबला तेरी यही कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी ..' उसे बदला जाए. एक लड़की को अबला की जगह शुरुआत से ही सबला बना कर समाज के सामने प्रस्तुत करना चाहिए. बाल अधिकारों में बेटियों को उनके पूरे हक अदा करने होंगे. ताकि वो भी साक्षी, दीपा और सिन्धु की तरह देश का नाम रौशन कर सकें.

Wednesday 13 July 2016

साइबर ट्रौलिंग और राजनीतिक गोलबंदी



  पिछले दिनों ‘महिला एवं बाल विकास मंत्री’ मेनका गाँधी ने सोशल मीडिया पर महिलाओं के साथ होने वाली ट्रौलिंग को रोकने के लिए ‘एंटी ट्रौलिंग’ की घोषणा की. जो कि महिलाओं के ऑनलाइन प्रताड़ना के मामलों पर निगरानी रखेगी. इसके तहत एक इकाई केवल प्रभावित महिलाओं द्वारा ईमेल के जरिए की गयी शिकायतों पर कार्रवाई करेगी. जिसमें गाली गलौज वाले व्यवहार, प्रताड़ना, नफरत भरे आचरण के बारे में शिकायत मिलेगी. इस कार्य की ज़िम्मेदारी किसी एक समर्पित व्यक्ति की होगी जिस से मंत्रालय ट्विटर पर ट्रौलिंग की शिकायतों पर सीधे बात कर सके. इसके लिये दिल्ली महिला आयोग ने भी मेनका का समर्थन कर उनकी प्रशंसा की है. हालाँकि मेनका ने ये भी साफ़ कर दिया है कि ‘एंटी ट्रौलिंग’ का मतलब साइबर निगरानी करना कतई नहीं है.

साभार : google 


    गौरतलब है कि आनलाइन प्रताड़ना से महिलाओं की सुरक्षा हेतु मेनका गाँधी की इस पहल पर राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ललिता कुमारमंगलम ने उस समय कड़ी आपत्ति जतायी थी जब आयोग से आनलाइन प्रताड़ना के मामलों की निगरानी करने को कहा गया था. उन्होंने बताया था, आप इंटरनेट की निगरानी नहीं कर सकते. यह एक खुली जगह है. यह एक आकाशगंगा की तरह है जहां अरबों ट्विटर एकाउंट हैं और कोई भी संगठन ट्विटर पर नजर नहीं रख सकता. किसी के लिए भी यह कहना संभव नहीं है कि हम हर किसी के ट्वीट पर नजर रख रहे हैं.

  गत महीने ही गृह मंत्रालय इससे पहले सायबर क्राइम निवारण योजना भी विशेष रूप से महिलाओं व बच्चों के साथ होने वाले साइबर अपराधों को रोकने के लिए तैयार की है। इसमें सायबर विशेषज्ञों की टीम अश्लील मैसेज व पोर्न वीडियो भेजना, अश्लील ई-मेल या छवि खराब करने के उद्देश्य से महिलाओं, बच्चियों के मूल फोटो में परिवर्तित कर पोर्नोग्राफी विषय-वस्तु तैयार करने जैसे मामलों को देखेगी। जिसमें कम से कम समय में आरोपियों तक पहुंचने की बात की गयी थी.

  न्यूयार्क की एक रिपोर्ट के अनुसार इन्टरनेट का इस्तेमाल करने वाली लगभग तीन चौथाई महिलायें किसी न किसी किस्म की साइबर हिंसा का शिकार हैं. ‘कॉम्बैटिंग ऑनलाइन वायलेंस अगेंस्ट वुमन एंड गर्ल्स : अ वर्ल्ड वाइड वेक–अप’ नाम की इसे सर्वे में लगभग 86 देशों का अध्ययन किया गया. जिसके रिपोर्ट में बताया गया कि उनमें कानून लागू करने की संस्थाएं ऐसे मामलों में से केवल 26 फीसद मामलों की ही उपयुक्त कार्यवाही कर पाती हैं. सर्वे में ये भी सामने आया है कि भारत में साइबर अपराध के मामलों में शिकायत करने में महिलाओं की संख्या काफी कम है. रिपोर्ट के अनुसार, भारत में केवल 35 फीसद महिलाओं ने साइबर अपराध की शिकायत की, जबकि 46.7 फीसद पीढित महिलाओं ने शिकायत ही नहीं की. वहीँ 18.3 फीसद महिलाओं को इस बात का अंदाज़ा ही नहीं था की वे साइबर अपराध की शिकार हो रही हैं.

  साइबर की दुनिया में महिलाओं को निशाना बनाकर सबसे ज्यादा जिस अपराध को अंजाम दिया जाता है, वह है - साइबर स्टाकिंग यानी साइबर वर्ल्ड में पीछा करना या पीछे से हमला करना। बार-बार टेक्स्ट मैसेज भेजना, फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजना, स्टेटस अपडेट पर नजर रखना और इंटरनेट मॉनिटरिंग इसी अपराध की श्रेणी में आते हैं। आईपीसी की धारा 354 डी के तहत यह दंडनीय अपराध है। साइबर स्पाइंग भी एक अन्य तरह का साइबर अपराध है। आईटी एक्ट की धारा 66 ई के अंतर्गत यह दंडनीय अपराध है। इसमें चैंजिंग रूम, लेडिज वॉशरूम, होटल रूम्स और बाथरूम्स आदि स्थानों पर रिकॉर्डिंग डिवाइस लगाए जाते हैं। तीसरे तरह का अपराध जो महिलाओं पर केंद्रीत है- वह है साइबर पॉर्नोग्राफी। इसके तहत महिलाओं के अश्लील फोटो या वीडियो हासिल कर उन्हें ऑनलाइन पोस्ट कर दिया जाता है। अधिकांश मामलों में अपराधी फोटो के साथ छेड़छाड़ करते हैं और बदनाम करने, परेशान और ब्लैकमेल करने के लिए उनका इस्तेमाल करता है। इस तरह के अपराधों में आईटी एक्ट की धारा 67 और 67ए के अंतर्गत आते हैं. वहीँ साइबर बुलिंग इसी क्रम में चौथी तरह का अपराध है। जिसे बड़े ही शातिर तरीके से अंजाम दिया जाता है। साइबर अपराधी पहले महिलाओं या लड़कियों से दोस्ती बनाते हैं और फिर उन्हें अपना शिकार बनाते हैं। विश्वास में लेकर और लालच के चलते नजदीकियां बढ़ाने के बाद महिला या लड़की के निजी फोटो हासिल कर लेते हैं। इसके बाद पीड़िता से मनचाहे काम करवाने के लिए ब्लैकमेल करते हैं। साइबर बुलिंग का दुष्परिणाम है कि कई मामलों में युवा लड़कियों से रेप हुए हैं, उनका यौन उत्पीड़न हुआ है, वहीं अधिक उम्र वाली महिलाओं को पैसों के लिए ब्लैकमेल किया गया है।

  देश में वर्ष 2011 में कुल 13,301, वर्ष 2012 में 22,060, वर्ष 2013 में 71,780 साइबर अपराध दर्ज किए गए। साल 2014 में साइबर क्राइम की करीब डेढ़ लाख वारदातें होने की बात अध्ययन में सामने आई है । जिसके 2015 में बढक़र लगभग दोगुना हो जाने का अनुमान जताया गया है। यह बात भी सामने आई कि इन्हें अंजाम देने वाले अधिकतर अभियुक्त युवा हैं। जिनकी आयु 18 से 30 साल के बीच है। साइबर क्राइम ब्रांच के मुताबिक पिछले कुछ वर्षो मे इन अपराधों में जमकर बढ़ोतरी हुई है और निशाने पर अक्सर टीन एजर्स रहते हैं।
पिछले दिनों सामने आया स्वाति मर्डर केस साइबर क्राइम का एक सबसे खतरनाक पहलु उजागार करने वाला वाकया रहा. जहाँ दोनों ने एक दूसरे के मोबाइल नंबर फेसबुक के ज़रिये दिए थे. वहीँ रामकुमार ने कई बार सार्वजनिक रूप से स्वाति को प्रपोज़ भी किया था. लुक्स को लेकर हुए भद्दे मजाक और टिपण्णी के रोष में आकर आरोपी ने स्वाति को रेलवे स्टेशन पर ही गला रेतकर हत्या कर दी.

  ये केवल एक घटना है जिसका ज़िक्र हुआ है आये दिन ऐसी वारदातें होती रहती हैं. वहीँ आजकल सोशल मीडिया पर होने वाली बहसें कई बार हदें पार तक कर देती हैं. जिनमें महिलाओं को लेकर कई बार न सिर्फ अभद्र कमेंट किये जाते हैं बल्कि लेख तक लिख दिए जाते हैं. बरखा दत्त, सागरिका घोष, कविता कृष्णन, अलका लम्बा, स्मृति ईरानी, अंगूर लता देका, यशोदा बेन इत्यादि महिलाएं इस अभद्रता की भुक्त भोगी देखी जाती हैं आये दिन. केंद्रीय एवं जनरल वीके सिंह के बयान से चर्चा में आया ‘ प्रैसटीट्यूड’ शब्द का किसी भी महिला पत्रकार के लिए इस्तेमाल आम ही है. सागरिका घोष और उनकी बेटी का बलात्कार करने की धमकी दी गयी. साथ ही पिछले दिनों कंगना रणोत के खिलाफ ट्विटर पर करैक्टरलेस कंगना, फेक फेमिनिज्म जैसे हैशटैग प्रचलन में थे. वहीँ कविता कृष्णन का कहना है कि ‘समाज तो जैसा है वैसा है ही, लेकिन चिंता की बात ये है कि जो राजनीतिक गोलबंदी के तहत हो रहा है उसे आप समाज के कंधे पर नहीं धकेल सकते. अगर ये प्लान के तहत हो रहा है तो उसका आयोजक कौन है? ऐसा करने वालों का आत्मविश्वास यहां से आ रहा है कि प्रियंका चतुर्वेदी को बलात्कार की धमकी मिलती. स्मृति ईरानी को लेकर आये दिन अभद्र टीका टिपण्णी की जाती रही हैं. पिछले दिनों ही सलमान खान के विवादित बयान पर ट्वीट करने पर सोना मोहपात्रा को भी ट्विटर पर काफी गाली – गलौच का सामना करना पड़ा.

   ऐसे में मेनका गाँधी की पहल काफी हद तक सराहनीय है क्योंकि यदि इस प्रकार की संहिता सफल होती है तो काफी हद तक लोगों को काबू किया जा सकता है. लेकिन ये कहाँ तक कारगर साबित होगी अभी कुछ कहा नहीं जा सकता है. क्योंकि इंटरनेट पर सूचनाएं रोकी नहीं जा सकतीं, लेकिन क्या सामाजिक और भाषाई रूप से अभद्र, आक्रामक और महिला विरोधी होते जा रहे समाज पर भी नियंत्रण नामुमकिन है? ये एक बड़ा सवालिया निशान है. क्योंकि साइबर स्पेस में कितने ही फेक एकाउंट्स बने हैं जिन्हें ट्रैक करना बिल्ली के गले में घंटी बाँधने के बराबर है.

Wednesday 15 June 2016

उड़ता पंजाब : रचनात्मकता की जीत




‘केंद्रिय फिल्म प्रमाणन बोर्ड’ ने हाल ही में पंजाब में ड्रग्स की समस्या को उजागर करती फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ फिल्म में  अस्सी से ज्यादा कट लगाने के बाद न सिर्फ फिल्म ही विवादों में आई बल्कि बोर्ड भी विवादों  के घेरे में आ गया।  सोमवार को बॉम्बे हाईकोर्ट ने फैसला सुनाते हुए सेंसर बोर्ड को दो दिनों के भीतर ही सर्टिफिकेट जारी करने को कहा है, हालाँकि फिल्म को ‘अ’ सर्टिफिकेट मिलेगा । साथ ही अदालत ने ये भी कहा है की ‘उड़ता पंजाब’ में ऐसा कुछ भी नहीं है जो देश की संप्रभुता और अखंडता पर सवालिया निशान लगाए । फिल्म में शाहिद कपूर जहाँ एक दृश्य में पेशाब करते हुए दिखाए गए हैं उसे निकाल दिया जायेगा. साथ ही फिल्म में तीन डिस्क्लेमर भी लगाये जायेंगे जिनमें अपशब्दों को इस्तेमाल किया गया है. ऐसे में खुद सेंसर बोर्ड के सदस्य और फिल्मकार अशोक पंडित ने कहा है कि ‘ये रचनात्मकता की जीत है और सन्देश है कि लोग किसी भी तरह से चीज़ों को मनमर्जी नहीं चला सकते हैं’.

http://epaper.rajexpress.in/Details.aspx?id=237&boxid=4493561 : राज  एक्सप्रेस के संपादकीय में प्रकाशित 
यह संस्था चलचित्र अधिनियम 1952 के तहत जारी किये गए प्रावधानों के अनुसरण करते हुए फिल्मों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर नियंत्रण रखने का काम करती है । जो की सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन आता है । गौरतलब है कि केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा फिल्मों को प्रमाणित करने के बाद ही भारत में उसका सार्वजनिक प्रदर्शन   कर सकते है। सीबीऍफ़सी के अंतर्गत फिल्मों को चार वर्गों के अन्तर्गत प्रमाणित करते है, ’अ’-  अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रदर्शन, ’व’-  वयस्क दर्षकों के लिए निर्बन्धित । ’अव’-  अनिर्बन्धित सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए किन्तु  12 वर्ष से  कम आयु के बालक/बालिका को माता-पिता के मार्गदर्षन के साथ फिल्म देखने की चेतावनी के साथ  ’एस’- किसी विशेष व्यक्तियों के लिए निर्बन्धित ।

क्योंकि भारत में प्रेस में भी स्वतंत्रता है और इसीलिए ऐसी स्वतंत्रता सिनेमा को भी दी गयी है. लेकिन भारतीय संविधान के  अनुच्छेद 19 (A) के अनुसार  जहाँ भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गयी है वहीँ इसे सीमित कर लिया गया है 19 (बी) में , और यहाँ सिनेमा को सीमित करने का ज़िम्मा CBFC के कन्धों पर डाला गया है ।  इस संस्था का गठन इसीलिए किया गया था कि  दर्शकों तक स्वस्थ मनोरंजन पहुँच सके और पारदर्शिता बनी रहे । लेकिन ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि स्वंतंत्रता नाम मात्र की रह जाती है । फिल्मों पर बेधड़क कैंची चलती है ।

उड़ता पंजाब पहली फिल्म नहीं है जो सेंसर बोर्ड के कारण विवादों के घेरे में आई है । सिनेमा के इतिहास में पहली फिल्म जो बैन हुई वो थी ‘नील आकाशेर नीचे’ (1959) । 1975 में आई फिल्म ‘आंधी’ जिसे इंदिरा गाँधी पर आधारित फिल्म माना गया था को आपातकाल के दौरान  रिलीज़ ही नहीं होने दिया गया, उसके बाद ‘किस्सा कुर्सी का, गर्म हवा, सिक्किम इत्यादि फिल्में। डायरेक्टर शेखर कपूर की फिल्म 'बैंडिट क्वीन' को सेंसर ने वल्गर और इनडिसेंट कंटेंट के चलते बैन कर दिया था। फिल्म की कहानी फूलन देवी पर आधारित थी, जिसमें सेक्शुअल कंटेंट, न्यूडिटी और अब्यूसिव लैंग्वेज के चलते सेंसर ने आपत्ति जताई थी। डायरेक्टर दीपा मेहता की फिल्म 'फायर' में हिंदू फैमिली की दो सिस्टर-इन-लॉ को लेस्बियन बताया गया है। फिल्म का शिवसेना समेत कई हिंदू संगठनों ने काफी विरोध किया था। यहां तक कि फिल्म की डायरेक्टर दीपा मेहता और एक्ट्रेस शबाना आजमी व नंदिता दास को जान से मारने की धमकी तक दी  गयी थी । अनगिनत विवादों के उपरांन्त  आखिरकार सेंसर ने इसे बैन कर दिया। डायरेक्टर मीरा नायर की फिल्म 'कामसूत्र' (1996) ‘काम’ पर आधारित  थी। फिल्म में काफी हद तक खुलापन देखा  जा सकता था। फिल्म में 16वीं सदी के चार प्रेमियों की कहानी बताई गई थी। फ़िल्म क्रिटिक्स को तो ये मूवी बहुत पसंद आई लेकिन सेंसर बोर्ड को नहीं। और आखिरकार  फिल्म को बैन कर के दम लिया गया । राइटर एस हुसैन ज़ैदी की किताब पर बनी फिल्म 'ब्लैक फ्राइडे'  (2004 )अनुराग कश्यप की दूसरी फ़िल्म थी, जिसे सेंसर बोर्ड ने बैन किया था। 1993 में हुए मुंबई बम ब्लास्ट पर आधारित ये फिल्म काफी  विवादों में  रही. उस समय बम ब्लास्ट का केस कोर्ट में चल रहा था इसीलिए हाई कोर्ट ने इस फ़िल्म की रिलीज़ पर स्टे लगा दिया था । दीपा मेहता की  दूसरी फ़िल्म वाटर (2005 ), जो विवादों में फंसी थी । एक भारतीय विधवा को सोसायटी में कैसे-कैसे हालातों से गुज़रना पड़ता है, इसी  ताने  बने में  गुंथी हुई फिल्म  थी । वाराणसी के एक आश्रम में शूट हुई इस फ़िल्म को अनुराग कश्यप ने लिखा था। सेंसर बोर्ड को ये सब्जेक्ट समझ नहीं आया। इसके अलावा कई संगठनों ने इस फ़िल्म का विरोध किया। आखिरकार सेंसर को यह फिल्म भी बैन करनी पड़ी। परजानिया (2005) फिल्म गुजरात दंगों पर आधारित थी  कुछ लोगों ने इसे सराहा तो कई ने इसे क्रिटिसाइज भी किया। वैसे तो परज़ानिया को अवॉर्ड मिला। लेकिन गुजरात दंगे जैसे सेंसेटिव सब्जेक्टर कीवजह से इस फ़िल्म को गुजरात में बैन कर दिया गया था।  अनुराग कश्यप और सेंसर बोर्ड की दुश्मनी मानों काफी पुरानी है। उनकी फ़िल्म 'पांच' जोशी अभ्यंकर के सीरियल मर्डर (1997) पर बेस्ड थी। सेंसर बोर्ड ने इस फ़िल्म को इसलिए पास नहीं किया क्योंकि इसमें हिंसा, अश्लील लैंग्वेज और ड्रग्स की लत को दिखाया गया था। ‘सिंस’ (2005) यह फ़िल्म केरल के एक पादरी पर बेस्ड थी, जिसे एक औरत से प्यार हो जाता है। दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी बन जाते हैं। कैसे ये पादरी, समाज और धर्म की मर्यादाओं के बावजूद अपने प्यार को कायम रखता है, यही फ़िल्म की कहानी है। कैथलिक लोगों को यह फ़िल्म पसंद नहीं आई थी क्योंकि इसमें कैथलिक धर्म को अनैतिक ढंग से दिखाया गया था। सेंसर बोर्ड को इस फ़िल्म के न्यूड सीन से परेशानी थी इसीलिए उसने इसे बैन कर दिया। श्रीधर रंगायन की फिल्म 'द पिंक मिरर' (2003) सेंसर बोर्ड को इसलिए पसंद नहीं आई क्योंकि इसमें समलैंगिक लोगों (ट्रांससेक्शुअल और गे टीनेजर) के हितों की बात बताई गई है। दुनिया के दूसरे फेस्टिवल्स में इस फ़िल्म को सराहा गया था लेकिन भारत में सेंसर बोर्ड ने इसे बैन कर दिया था। फ़िराक (2008) दूसरी फ़िल्म है, जो गुजरात दंगों पर बनी। प्रोड्यूसर्स के मुताबिक यह फ़िल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित  थी , जो गुजरात दंगों के समय हुई थीं। एक्ट्रेस नंदिता दास को इस फ़िल्म के लिए कई संगठनों से काफ़ी विरोध झेलना पड़ा था। आखिरकार सेंसर बोर्ड ने इसे बैन कर दिया। हालांकि कुछ समय बाद जब ये फ़िल्म रिलीज़ हुई, तब इसे आलोचकों और दर्शकों से काफ़ी तारीफ मिली थी। डायरेक्टर पंकज आडवाणी की फिल्म 'उर्फ प्रोफेसर' भी सेंसर बोर्ड के के शिकंजे से बच नहीं पाई थी। इस फिल्म में मनोज पाहवा, अंतरा माली और शरमन जोशी जैसे एक्टर थे। हालांकि वल्गर सीन और खराब लैंग्वेज के कारण सेंसर बोर्ड ने इसे पास नहीं किया। ‘इंशाल्लाह फुटबाल’ दरअसल यह एक डाक्यूमेंट्री है, जो एक कश्मीरी लड़के पर बनी है। यह लड़का विदेश जाकर फुटबॉल खेलना चाहता है लेकिन उसे देश से बाहर जाने की आज्ञा नहीं मिलती क्योंकि उसका पिता टेरेरिस्ट एक्टिविटीज से जुड़ा हुआ है। फ़िल्म का मोटिव था कि आतंकवाद के चलते, कश्मीरी लोगों की परेशानियां दुनिया के सामने लाएं लेकिन कश्मीर का मसला हमेशा से ही सेंसेटिव रहा है। इसी वजह से सेंसर बोर्ड ने इसे रिलीज़ ही नहीं होने दिया। डेज्ड इन दून (2010) दून स्कूल देश के फेमस स्कूलों में से एक है। इस फ़िल्म की कहानी एक लड़के की ज़िन्दगी पर बेस्ड है, जो दून स्कूल में पढ़ता है और फिर ज़िन्दगी उसे एक अलग ही सफ़र पर ले जाती है। दून स्कूल मैनेजमेंट को यह फ़िल्म पसंद नहीं आई। उनका मानना था कि ये फ़िल्म दून स्कूल की इमेज को नुकसान पहुंचा सकती है। यही वजह रही कि सेंसर ने इसे रिलीज ही नहीं होने दिया। इसके  अलावा हालिया उदहारण ‘काफ़िरों की  नमाज़’ फिल्म है जिसे रिलीज़ ही नहीं होने दिया गया । लेकिन फिल्म निर्माता चुप नहीं बैठे और फिल्म को यू-ट्यूब पर  रिलीज़ किया, और फिल्म को काफी सराहना भी मिली.

विश्व का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग भारत में है और यहाँ हर साल लगभग 1300 फीचर फ़िल्में या उस से भी अध्दिक बनती हैं, एक बड़ी संख्या में लघु फिल्में बनायीं जाती हैं अलग –अलग भाषाओँ  में । अनुमान ऐसा भी  है की यहाँ रोजाना तकरीबन 1.50 करोड़ लोग देशभर के 13,000 सिनेमाघरों में , वीडियो, केबल, ऑनलाइन फिल्में  देखते हैं । ये भी कहा जा सकता है कि हर दो  महीने  में  लगभग भारत की सम्पूर्ण जनसँख्या के बराबर लोग सिनेमाघरों में  शिरकत करते हैं ।

क्योंकि ये एक बहुत बड़ा उद्योग है और इसीलिए लाखों लोगों को रोज़ी रोटी भी प्रदान करता है । फिल्म निर्देशक, निर्माता अपनी अपनी कलाओं को बेहतर से बेहतरीन दिखाने में प्रयासरत रहते हैं ताकि अच्छी से अच्छी कमाई या मुनाफा हो सके क्योंकि इसमें निवेश भी उसी प्रकार का होता है ।

अब ऐसे में बात करें क्रिएटिविटी और उसके लिए स्वतंत्रता की । जहाँ अक्सर रचनात्मकता को श्लीलता और अश्लीलता की कसौटी पर रखा जाता है और उसका दम घोंट दिया जाता है. ऐसे में ये कौन निर्धारित करेगा की श्लीलता का पैमाना क्या है? सेंसर बोर्ड की कैंची अक्सर फिल्मों पर चलती है और कई दफे ऐसी चलती है की फिल्म की रूह तक को ख़त्म कर दिया है । क्योंकि सिनेमा सबसे सशक्त मध्यम है जन्संचार का। ऐसे में क्यों और कब तक सिनेमा को लोगों का मोहताज रहना होगा । ये एक बड़ा सवाल है, ये लोगों के लिए बना ऐसे में यदि किसी मुद्दे के सच को तथ्यों के साथ रखा जाता है तो परेशानी क्या है ? दर्शकों को इस बात का निर्धारण करने दें की वो क्या देखना चाहते हैं और क्या नहीं । क्योंकि आज का दर्शक काफी समझदार है और उसे पता है की उसे क्या देखना है और क्या नहीं । ऐसे में उन्हें स्वतंत्रता दी जानी चाहिए  न की प्रतिबन्ध लगाये जाने चाहिए । क्योंकि ये बात भी सच है की जिस चीज़ को जितना छुपाया जाता जाता है लोगों में उसे जानने की उत्सुकता उतनी ही बढती है । इस सारे विवाद में फिल्म का एक सबसे बड़ा फायदा ये ज़रूर हुआ है कि फिल्म को पब्लिसिटी या प्रमोशन की ज़रुरत नहीं पड़ी । खुद CBFC ने ही इतना हो हल्ला मचा कर फिल्म को लोगों तक पंहुचा दिया ।

Tuesday 26 April 2016

भीख मांगने से बेहतर है महिलाएं डांस कर जीवन यापन करें

सुप्रीम कोर्ट के जज दीपक मिश्रा ने 25 अप्रैल  को महाराष्ट्र सरकार को मुंबई डांस बार मामले में काफी  कड़ी
फटकार  लगाते  हुए कहा है कि ‘सड़कों  पर  भीख मांगने  से  बेहतर  है की महिलाएं स्टेज पर डांस कर अपना  जीवन यापन करें.’ ध्यान  देने वाली बात ये है कि यहाँ उनका तात्पर्य देह व्यापार  से भी है. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को रेगुलेशन और प्रतिबन्ध में फर्क भी समझाया. कोर्ट के अनुसार राज्य सरकार  ने कहा  है कि वह इसे  रेगुलेट कर रही है लेकिन कहीं न कहीं उनका आशय डांस बारों को बंद करने से है.  गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने डांस बार मामले को संवैधानिक दायरे का ध्यान में रखते  हुए कहा कि यदि सुप्रीम कोर्ट ने आदेश को पास कर दिया है तो ऐसे में सरकार को कोई हक नहीं है कि वो इस पर रोक लगा सके. लेकिन इसी के साथ कोर्ट ने डांस बार शुरू करने  को परिसीमित भी किया है. जिसमें उन्होंने डांस करने वाली महिलाओं के सम्मान और श्लीलता का ध्यान रखा जाना, लाइसेंस लेने के लिए बीएमसी के स्वास्थ्य विभाग, फायर विभाग तथा रन भूमि प्रशिक्षण मंडल के लाइसेंस लेने की ज़रुरत नहीं होगी. लेकिन डांस बार  का लाइसेंस लेते वक्त मालिक की आपराधिक प्रष्ठभूमि की जांच पड़ताल हफ्ते भर के भीतर आवश्यक होगी. साथ ही डांस बार का स्टेज तीन फिट तक ऊंचा और बार डांसर्स को 5 फिट की दूरी कायम रखनी होगी.

महाराष्ट्र राज्य सरकार ने 2005 में सभी बारों  में डांस पर पाबन्दी लगा दी थी लेकिन तीन एवं पांच सितारा होटलों को इस प्रतिबन्ध से मुक्त रखा था.  लेकिन प्रतिबन्ध को लेकर राज्य सरकार  कानूनी  लड़ाई हार चुकी है. गौरतलब है की बार डांसरों के संगठन ने जीविका का अधिकार को मुद्दा बनाते हुए सर्कार के इस निर्णय को भेदभावपूर्ण बताते हुए हाईकोर्ट  में चुनौती दी थी और कोर्ट ने डांस बार एक बार पुनः शुरू करने का फैसला सुनाने पर राज्य सरकार ने  सुप्रीम कोर्ट  में अपील की थी. इस से पहले जुलाई 2013 में शीर्ष अदालत ने भी हाईकोर्ट के फैसले को बरक़रार रखते हुए नए लाइसेंस लेकर एक बार फिर सी बार शुरू किये जाने के पक्ष में रजामंदी दी थी. हालाँकि राज्य सरकार  ने ऐसा कानून बनाने  की व्यवस्था भी की जिसके तहत डांस बार फिर से शुरू न किये जा सकें. ऐसे में राज्य सरकार का मानना  है कि डांस बारों के शुरू होने से जहाँ एक ओर महिलाओं की जिस्मफरोशी बढती है वहीँ महिलाओं की तस्करी को भी बढ़ावा मिलता है. साथ ही डांस बार अवैध कामों का अड्डा भी बन जाते हैं इन दलीलों के साथ तत्कालीन गृह मंत्री आर.आर पाटिल ने 15 अगस्त 2005 में डांस बारों पर पाबन्दी का फैसला और विधेयक तैयार किया था.

कई महिलाओं के लिये रोज़ी रोटी का साधन यह डांस बार काफी समय से राज्य में बहस का मुद्दा रहे हैं. फ़िलहाल राज्य सरकार डांस बार के लाइसेंस देने में कमियाँ निकाल रही है और लाइसेंस देने में कोताही भी बरत रही है. वहीँ सुप्रीमकोर्ट ने सरकार को दस मई को जवाब देने के लिए भी कहा है क्योंकि सरकार ने हलफनामा भी दाखिल करते हुए सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि 115 डांस बार ने पुलिस के निरिक्षण लिये आमंत्रण नहीं दिया  है. वहीँ एक और 39 बारों के निरिक्षण में पाया गया है कि उन्होंने 26 शर्तों का पालन नहीं किया गया है.
वहीँ इसमें एक और पहलु भी देखा जा सकता है जहाँ  सरकार  ने कहा है की वे अश्लीलता को कम करना चाहते हैं वहीँ सुप्रीम कोर्ट के अनुसार डांस अश्लील नहीं होना चाहिए . लेकिन अब ध्यान देने वाली बात ये है कि उस अश्लीलता का पैमाना क्या होगा? क्योंकि श्लील और अश्लील का पैमाना तय करना किसी के भी हाथ में नहीं है. वहीँ इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि डांस बारों में डांस ख़तम होने के बाद होने वाला देहव्यापार भी शामिल होता है, जिसमें सरेआम ज़बरदस्ती और बार डांसर्स की मजबूरी का फायदा उठाकर उनका शोषण किया जाता है जिसमें कई महिलाओं से लेकर बार प्रबंधन का भी हाथ होता है. ऐसे में सरकार को डांस पर प्रतिबन्ध लगाने की जगह परदे के पीछे होने वाले अपराधों को ख़त्म करना चाहिए. इस से पहले भी सुप्रीम कोर्ट 7 फ़रवरी,2014 को भारतीय दंड संहिता एक पुराने ‘अश्लीलता’ के प्रावधान की नयी  व्याख्या करते हुए महिलाओं की नग्न तस्वीरों को हमेशा अश्लील नहीं माना  जा सकता. ऐसे में डांस बार की डांसर्स के कपड़ों को अश्लील कहना ठीक नहीं होगा.


2005 में जब बारों पर प्रतिबन्ध लगाया गया था उस वक्त 75,000 महिलाएं मुंबई में कार्यरत थीं जिनमें लगभग 90 फ़ीसदी लड़कियां यानि तकरीबन पचपन हज़ार गायिका, नृत्यांगना पिछड़ी जनजातियों से संबंध रखने वाली थीं. क्योंकि कई क्षेत्रों से आने वाली औरतें इसके ज़रिये एक अच्छी रकम कमा पा रही  थी जिनके पास केवल एक ही ज़रिया होता है खाने-कमाने का उदाहरण स्वरुप नट, कंजर, बेढ़ीया आदि प्रजाति से ताल्लुकात रखने वाली महिलाएं . ऐसे में उनकी जीविका के साधन को उनसे दूर करके राज्य सरकार ने कहाँ तक न्याय किया है ये एक सवालिया निशान लगाने वाला मुद्दा  है.


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Friday 15 April 2016

भ्रामक विज्ञापन का खामियाजा और सेलेब्रिटी

राज एक्सप्रेस में 15 अप्रैल '2016 को प्रकाशित 

संसदीय समिति ने भ्रामक प्रचार और विज्ञापन करने वाले सेलिब्रिटीज़ को अब जवाबदेही के लिए,  कंज्यूमर प्रोटेक्शन बिल में संशोधन के लिए रिपोर्ट दी है। सिफारिशों के मुताबिक पहली बार ऐसा प्रचार करते हुए पाए जाने पर 10 लाख रुपये का जुर्माना और दो साल की जेल अथवा दोनों का प्रावधान हो सकता है. वहीँ दूसरी बार ऐसा होने पर 50 लाख रुपये तक की पेनल्टी और 5 साल की सजा हो सकती है या दोनों भी हो सकते हैं. लेकिन यदि बार- बार ऐसा किया जा रहा होगा तो उत्पाद अथवा सर्विस की बिक्री के आधार पर पेनल्टी लगाई जा सकती हैं.


इन सभी सिराफिशों को जल्द ही संसद में रखा जायेगा. गौरतलब है कि  यदि संसदीय समिति की इन सिफारिशों को इंडियन कंज्यूमर प्रोटेक्शन बिल में शामिल किया जाता है तो प्रचार करने वाली नामी हस्तियों को कोई भी कॉन्ट्रैक्ट साइन करने से पहले इन सभी बातों से सहमत होना होगा. ये सिफारिश कोई एक दिन की उपज नहीं है लगभग पिछले तीन सालों से इस पर काम हो रहा है था साथ ही उपभोक्ता मामलों में मंत्रालय के पैनल ने इसमें दो और वर्षों को जोड़ा है और काफी बड़ी पेनल्टी लगाए जाने की मांग की है. जिसके पीछे वजह दी है की झूठे दावों के ज़रिये एक उत्पाद की बिक्री को बढ़ाने का काम किया जाता है, जिस पर सभी की सहमत राय ये थी की मैनूफेक्चरर और प्रमोटर के साथ सेलिब्रिटीज को भी जवाबदेह होना चाहिए. देखा जाये तो इस संदर्भ में गठित संसदीय समिति के प्रमुख तेलुगूदेशम पार्टी के सांसद जे.सी. दिवाकर रेड्डी ने भ्रामक प्रचार से प्रॉडक्ट या सर्विस की बिक्री के आधार पर पेनल्टी की मात्रा तय करने की भी मांग की थी।


ऐसे में विख्यात ब्रांड कंस्लटेंट हरीश बिजूर का कहना है कि ऐसा होना सही है, क्योंकि लोग सेलेब्रिटी को देखकर ही प्रोडक्ट पर भरोसा करते हैं।


विज्ञापन सामान्यतः किसी वस्तु विधा या सेवा से उपभोक्ताओं की जानकारी करवाता है. उसमें खरीदने की इच्छा जागृत करता है और साथ ही बाज़ार में उपलब्ध वस्तुओं के चयन में हमारी सहायता करता है. कई बार ये उपभोक्ता के जीवन में सहायक भूमिकाएं निभाते हैं लेकिन कई बार विज्ञापन भ्रामकता भी बढ़ता है जिससे इतना गहरा प्रभाव पड़ जाता है कि किसी एक विशेष उत्पाद की उपभोक्ता को आदत पड़ जाए.

वैश्वीकरण और बाज़ारीकरण के इस दौर में विज्ञापन मीडिया जगत का संपूरक बन चुका है. फिर चाहे बात समाचार पत्रिकाओं कि हो रेडियो या टेलीविज़न साथ ही डिजिटल मीडिया जो इतनी तेज़ी से बढ़ रहा है और भविष्य है जनसंचार माध्यम का. ऐसे में इनका कार्यक्रमों के साथ ही साथ इनका ध्यान विज्ञापनों पर भी होता ही है.

जनवरी में भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) ने पतंजलि आयुर्वेद के बालों के तेल उत्पाद केश कांति संबंधी विज्ञापन को भ्रामक पाया है। परिषद का कहना था कि कंपनी विज्ञापन में किए गए दावों के समर्थन में कोई क्लिनिक्ल साक्ष्य पेश नहीं कर पाई है। इसके साथ ही परिषद ने भारती एयरटेल, आइडिया सेल्यूलर, फ्लिपकार्ट, मायंत्रा, बजाज ऑटो, निसान मोटर और इंडिगो एयरलाइंस सहित विभिन्न कंपनियों के 37 विज्ञापन अभियानों के खिलाफ शिकायतों को भी सही पाया था. गौरतलब है कि उक्त कंपनियों के विज्ञापन भी भ्रामक बताते हुए शिकायत की गई थी। वहीँ 2014 में भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) विज्ञापनों में भ्रम के आरोप में दर्ज 136 शिकायतों में से 99 को सही ठहराया। इनमें प्रॉक्टर एंड गैंबल, आईटीसी, मारिको और डाबर जैसी दिग्गज कंपनियों के विज्ञापन भी हैं।

ऐसे में यदि ये बिल पास हो जाता है तो इस प्रकार के भ्रामक विज्ञापनों पर कहीं न कहीं ज़रुर रोक लगेगी.

आज विज्ञापनों की दुनिया इतनी बड़ी हो चुकी है कि यदि कोई कंपनी किसी नामी सेलेब्रिटी को किसी कैम्पेन प्रोजेक्ट के तहत साईन करती है तो एक दस से पच्चीस करोड़ रुपये तक देती है. अब बात आती है उत्पाद कि गुणवत्ता और किये गए वादे की जो उपभोक्ताओं से किया जाता है, उदहारणस्वरुप ‘आठ दिनों में गोरापन’, ‘इंस्टेंट गोरापन’, आठ दिनों में वज़न कम करें’, ‘अपना लक पहन कर चलो’, इसको लगा डाला तो लाइफ जिंगालाला’ इत्यादि टैगलाइन्स भ्रामकता पैदा करने के लिए काफी हैं. वहीँ कई बार देखने को मिलता है की बड़ी-बड़ी फिल्म, क्रिकेट , टेनिस सेलिब्रिटीज कई ऐसे उत्पादों का प्रचार करती हुई नज़र आती हैं जो वो खुद इस्तेमाल में नहीं लाते हैं लेकिन एक बड़ी राशि के बदले ये सेलिब्रिटीज तेल, नमक, चाय, बिस्कुट इत्यादि बेचते हुए नज़र आते हैं.

पिच मेडिसिन एडवरटाईजिंग रिपोर्ट के आंकड़ों पर यदि ध्यान दिया जाए तो हम देखते हैं 2015 में टीवी विज्ञापन के क्षेत्र में 22 फ़ीसदी बढ़ोतरी हुई थी. 18,629 करोड़ रुपये की अनुमानित विज्ञापन आय के साथ, प्रिंट की 2016 में दस फ़ीसदी बढ़ोतरी की उम्मीद है.

कैरेट की रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में जहाँ डिजिटल 15.7 रहा और 2016 में 14.3 फीसदी की वृद्धि हो सकती है. मोबाइल और ऑनलाइन विडियो विज्ञापन खासकर सोशल मीडिया में हुए विज्ञापनों के चलते होगा. वहीँ 2017 में भारतीय लक्ज़री मार्किट 14 बिलियन डॉलर से बढ़कर 18 बिलियन हो जाने की उम्मीदें हैं. ऐसे में ध्यान देने योग्य बात ये है कि भारतीय मार्किट में विज्ञापनों का मार्किट हर साल बढ़ रहा है. विदेशी कंपनियों का निवेशीकरण साल-दर-साल बढ़ रहा है. ज़ाहिर है कि कंपनियां किसी भी अपने उत्पाद को बेचने के लिए सेलिब्रिटीज को मुंहमांगी कीमत देने में पीछे नहीं हटती हैं. वहीँ एक और दृष्टिकोण देखने को मिलता है, जहाँ चुनावी दौर में बड़े बड़े राजनेता बड़े बड़े दावे करके सब्जबाग दिखाते हैं देश को भूख, गरीबी, भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए लेकिन होता ढ़ाक  के तीन पात हैं.

ध्यान दिया जाए तो भ्रामक विज्ञापनों का सीधा नकारात्मक असर दिखता है. लोग अपनी कम आय के होने का बावजूद ऐसी भ्रामक उत्पादों के प्रति आकर्षित होते हैं और कई बार ये उत्पाद गुणवत्ता के मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं. ऐसे में ज़रूरी है कि कहीं न कहीं इन पर एक लगाम कसी जाए. सबसे महत्वपूर्ण बात होती है देश की संस्कृति के साथ खिलवाड़ करने की. तीज त्योहारों पर जहाँ लड्डू और मिठाई के ज़रिये मुंह मीठा करवाया जाता था अब उसकी जगह चॉकलेट और नमकीन लेने लगी हैं. शादी की रस्मों में जहाँ हल्दी चन्दन के उबटन होते थे वो अब निखारने वाली क्रीम लेने लगी हैं. फेहरिस्त बेहद बड़ी है.


विज्ञापनों का इतिहास अक्सर विवादस्पद रहा है. कभी क्रिएटिव को लेकर तो कभी श्लील और अश्लीतला के मानकों पर. लेकिन इस बार विज्ञापनों में सीधे तौर पर विज्ञापनों में साथ देने वाले सेलिब्रिटीज को निशाने पर रखा है. ये कहाँ तक ठीक है और कहाँ तक नहीं? क्या ऐसे में सेलिब्रिटीज को वाकई इन सभी विषयों की जांच पड़ताल करने के बाद ही किसी प्रोजेक्ट के लिए हामी भरनी चाहिए ? क्या एक सेलेब्रिटी विज्ञापन के लिए वाकई ज़िम्मेदार होना चाहिए? ये सब सवाल सामने हैं. ज़ाहिरी तौर पर एक सेलेब्रिटी उत्पाद की बिक्री में खास भूमिका निभाता है लेकिन, देखना ये है कि क्या इस प्रकार भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगाईं जा सकती है ?