Monday 23 October 2017

राजधानी का टिकट



ट्रेन का सफ़र हर दफे अलग होता है। कुछ सीट्स पर सुकून से बैठे लोग, विलाप मचाते बच्चे, उन्हें चुप करवाने की भरसक प्रयास करती उनकी माएँ, हो हल्ला मचाता दोस्तों का एक झुंड । अपनेबच्चों को लगातार खाखरा फ़फड़ा खिलाती गुजराती आंटी । देश की राजनीति पर गहन चिन्तन करते कुछ राजनैतिक विद्वान । और इन सबसे परे दरवाज़े और बाथरूम पास बैठे वो पैसेंजर जिनकी सीट या तो क्लीयर नहीं हुई होती या किसी मजबूरी में चढ़ने वाले लोग ।

एक बार मुंबई से कोटा आ रही थी। लेकिन ट्रेन छूट गयी थी । जाना बहुत ज़रूरी था इसीलिए अगली ट्रेन में बिना टिकट के चढ़ गयी । कोच के बाहर मैं भी दरवाज़े पर बैठी थी ।जो लोग टॉयलेट इस्तेमाल करने आ रहे थे मुझे ऐसी हीन निगाहों से देख रहे थे मानों दुनिया की सबसे निरीह प्राणी मैं ही हूँ। एक आदमी ने कहा अंदर कोच में जाकर बैठ जाओ आपका यहाँ बैठना ठीक नहीं। मैं बोरिया बिस्तर लेकर अंदर तो आ गयी ; लेकिन क्योंकि ट्रेन राजधानी थी इसीलिए बिना टिकट के टीटी साँस भी नहीं लेने देता । स्लीपर क्लास में आप लोकल टिकट लेकर कम से कम चढ़ सकते हैं और ट्रेन में टिकट बनवा सकते हैं । अब बिना टिकट के ट्रेन में चढ़ कर जुर्म तो कर ही चुकी थी ।ऊपर से टी॰टी॰ ने टिकट का दोगुना फ़ाइन लगा दिया । पर्स में बमुश्किल नौ सौ रुपए थे । टी॰टी॰ भी कर्तव्य और इरादों का पक्का था। कह दिया अगले स्टेशन पर उतरो या फ़ाइन दो ।जब आस पास के लोगों ने देखा तो बिना जान पहचान के भी उन्होंने मेरे लिए पैसे देकर टी॰टी॰ को रफ़ा दफ़ा किया । एक बन्दे ने अपनी सीट मुझे देकर ख़ुद नीचे फ़र्श पर सोया ।

हालाँकि कोटा पहुँच कर दोस्त से पैसे लेकर उन्हें लौटा दिए थे । लेकिन वो सफ़र ज़िंदगी के सबसे यादगार सफ़रों में से एक है । इसीलिए जब भी ट्रेन में सफ़र करती हूँ कोशिश करती हूँ कि जिनकी सीट्स नहीं हो पायीं उनकी मदद कर सकूँ ।






PS: हालाँकि उस दोस्त के पैसे मैंने अब तक नहीं लौटाए।





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