जयपुर के एक संभ्रांत परिवार में माँ ने अपनी 4 माह की बच्ची को मौत के घाट उतार, एक पुराने एसी में उसके खून से लथपथ शव को छुपा दिया. कड़ी पूछताछ के बाद माँ ने कबूला कि उसी ने बेटी की हत्या की है. गौरतलब है कि बच्ची की हत्या बेटे की चाह में की गयी थी. आरोपी महिला की एक आठ साल की एक बच्ची और भी है.
देखा जाए तो इस वाकये से दो बातें तो साफ़ होती ही हैं – पहली तो ये कि आज भी बेटी और बेटे के बीच की खायी अब तक सामाज में पट नहीं पायी है. और दूसरी ये कि अमीर या संभ्रांत वर्ग भी आज इस सोच के दायरे से बाहर नहीं निकल पाए हैं.
जहाँ एक ओर देश की लड़कियां मेडल्स ला कर देश का नाम वैश्विक पटल पर रख रही हैं. वहीँ दूसरी ओर बेटियों को इस प्रकार मौत के घाट उतार दिया जा रहा है. हालाँकि ये समस्या कोई आज - कल की नहीं है. बेटे की चाह हमेशा से लोगों में बनी रही है. फर्क सिर्फ इतना है कि आज लोग खुद को पढ़ा-लिखा और संभ्रांत मानने के बावजूद इन बातों को तरजीह देते हैं.
एक तरफ बेटी बचाओ – बेटी पढाओ जैसे कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं. जहाँ तकरीबन 100 करोड़ रुपये का बजटीय आबंटन किया गया है. साथ ही सुकन्या समृद्धि योजना लागू की गयी है जहाँ बेटियों की पढ़ाई और उनकी शादी पर आने वाले खर्च आसानी से पूरा करने के उद्देश्य को पूरा किया जा सके . लेकिन सवाल ये उठता है कि बेटी को आखिर किस से बचाओ? उस माँ से जिसने खुद उसे जन्म दिया हो. यहाँ लड़कियों के अस्तित्व को ख़त्म करने पर आखिर कौन तुला है? गौरतलब है की 2011 की जनगणना के अनुसार 0 -6 वर्ष की आयु समूह में सीएसआर घटने का खुलासा हुआ है. प्रति 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या घटकर 919 रह गयी है. जहाँ 2001 में प्रति 1000 लड्कों पर 927 लडकियां थीं. जहाँ अजन्मे बच्चे के लिंग का पता लगाने वाले आधुनिक उपकरणों की उपलब्धता से कन्या भ्रूण हत्या के मामले बहुत तेज़ी से बढ़े. आर्थिक फायदों को लेकर लड़कों के प्रति सामाजिक पक्षपात हमेशा से होता रहा है. क्योंकि आज भी सामाज के ज़हन में गहरे तक पैठ बनाए हुए है कि लड़की के साथ ही जिम्मेदारियां भी आती हैं. जन्म के साथ ही लड़कियों के साथ भेदभाव शुरू जाता है. स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा को लेकर उनके साथ अक्सर पक्षपात होता ही है.
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि बच्चियों के लिए भारत सबसे खतरनाक देशों में से एक है. संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग के अनुसार भारत में एक से पांच साल के बीच की लड़की के मरने की आशंका लड़के की तुलना में पचहत्तर फीसदी ज्यादा है. भारत में बच्चों के अधिकारों के लिए लिए काम करने वाली संस्था 'क्राई' का अंदाज़ा है कि देश में हर साल लगभर एक करोड़ बीस लाख बच्चियाँ पैदा होती हैं लेकिन इनमें से दस लाख एक साल के अन्दर ही मर जाती हैं.
गौर करने वाली बात ये है कि सातवी कक्षा का जीव विज्ञान बता देता है कि महिलाओं में केवल एक्स क्रोमोज़ोन होता है और लिंग तय पुरुष करता है जिसमें एक्स और वाय दोनोंन क्रोमोज़ोन हैं. हैरत तब होती है जब लोग पढ़ लिख कर भी बच्चियों के दुश्मन बन रहे हैं .
भारत में हर साल लगभग दस लाख लडकियाँ कोख में ही मार दी जाती हैं. वहीँ दहेज़ की बलिवेदी पर हर 77 मिनट पर एक औरत की हत्या होती है. हर 29 मिनट में एक स्त्री की मर्यादा का चीरहरण होता है. भारत भर में पांच साल में बच्चों से बलात्कार के मामलों में 151 फीसदी की वृद्धि हुई है. एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2010 में दर्ज 5,484 मामलों से बढ़कर यह संख्या 2014 में 13,766 हो गई है. इसके अलावा पोक्सो एक्ट के तहत देश भर में 8,904 मामले दर्ज किए गए हैं.
भारत में हर साल लगभग दस लाख लडकियाँ कोख में ही मार दी जाती हैं. वहीँ दहेज़ की बलिवेदी पर हर 77 मिनट पर एक औरत की हत्या होती है. हर 29 मिनट में एक स्त्री की मर्यादा का चीरहरण होता है. भारत भर में पांच साल में बच्चों से बलात्कार के मामलों में 151 फीसदी की वृद्धि हुई है. एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2010 में दर्ज 5,484 मामलों से बढ़कर यह संख्या 2014 में 13,766 हो गई है. इसके अलावा पोक्सो एक्ट के तहत देश भर में 8,904 मामले दर्ज किए गए हैं.
हमारे कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से अधिक है यहाँ 55 फीसदी महलाएं अन्नोत्पादन में अपने श्रम पर राष्ट्रीय भागीदारी निभा रही हैं. लेकिन लैंगिक असमानता फिर से एक बड़ा सवाल है. देश की राजनीति में महिलाओं का सशक्तिकरण नहीं दिखाई पड़ता. वर्तमान राजनीति में महिलाओं की भागीदारी 3 फ़ीसदी है. लोकसभा में 11 फ़ीसदी महिलाएं हैं जबकि राज्यसभा में लगभग 16 फ़ीसदी. कहीं न कहीं समाज भी महिलाओं की स्वतंत्रता को पचा नहीं पा रहा है ( यहाँ पुरुषों की बात नहीं हो रही, इस समाज में स्त्रियाँ भी शामिल हैं). स्त्रियों के मसले पर आधुनिक और रूढ़िवादी परम्पराओं के बीच सीधा टकराव देखा जा सकता है. पुरुष खुद ही इसे अतिक्रमण के रूप में देखता है हालंकि युवा समाज अपनी सोच में बदलाव ला रहा है. राखी के मौके पर जब साक्षी ने ओलिंपिक में मैडल जीता तो अधिकतर लड़कों ने ‘राखी का तोहफा ’ कह कर साक्षी का शुक्रिया अदा किया.
हमारे वेदों में नारी के प्रति बहुत उदात्त भावनाएं दर्शायी गयी हैं. वेद का नारी के प्रति दृष्टिकोण समन्वयवादी है. वेदों में नारी को ब्रह्मा यानि सृजनकर्ता कहा गया है , जिस प्रकार प्रजापती संसार की रचना करते हैं उसी प्रकार औरत भी मानव जाती की रचनाकार है. यजुर्वेद में भी कहा है - हे पुत्री तुम भावी जीवन में सदा स्थिरता के साथ खड़ी रहना. आज लड़कियां विभिन्न क्षेत्रों में अपना सकारात्मक योगदान प्रदान कर रही हैं. वे आत्मनिर्भर हैं. अपने परिवार और देश का हित करने में संलग्न हैं. ऐसे में अगर पुत्रियों की अवहेलना होगी तो समाज और देश का अहित ही होगा. महिलाओं के प्रति इस प्रकार का दृष्टिकोण वाकई त्रासदी है.
आज महिलाओं और बच्चियों के अधिकारों को लेकर समाज में घोर द्वंद चल रहा है. संसद में सिर्फ कानून बना कर हम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकते हैं. इसलिए लिए औरत को खुद अपनी सोच बदलकर आगे आना होगा. सरकार कोई भी हो वह कितना लोगों की सोच को बदलेगी आखिर . प्रियंका, ऐश्वर्या दीपिका जहाँ बॉलीवुड, टॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक छाई हुई हैं वहीँ देश में बच्चियों को पैदा होते ही ख़त्म होना पड़ता है.
फ़िलहाल ज़रुरत है बेटियों के लिए ख़ास तरह के आर्थिक स्वालंबन योजनायें चलाई जाएँ, जिससे बेटियों की शादी और स्वावलंबन को लेकर समाज की चिंता को बदला जा सके. वक्त है की लोग सोच को बदलकर बेटियों को एक स्वछन्द आकाश उपलब्ध करवाएं ताकि वे खुली सोच के साथ पंछी बन उड़ान भर सकें. हमने स्त्री के लिए जो सोच बना रखी है ‘अबला तेरी यही कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी ..' उसे बदला जाए. एक लड़की को अबला की जगह शुरुआत से ही सबला बना कर समाज के सामने प्रस्तुत करना चाहिए. बाल अधिकारों में बेटियों को उनके पूरे हक अदा करने होंगे. ताकि वो भी साक्षी, दीपा और सिन्धु की तरह देश का नाम रौशन कर सकें.
हमारे वेदों में नारी के प्रति बहुत उदात्त भावनाएं दर्शायी गयी हैं. वेद का नारी के प्रति दृष्टिकोण समन्वयवादी है. वेदों में नारी को ब्रह्मा यानि सृजनकर्ता कहा गया है , जिस प्रकार प्रजापती संसार की रचना करते हैं उसी प्रकार औरत भी मानव जाती की रचनाकार है. यजुर्वेद में भी कहा है - हे पुत्री तुम भावी जीवन में सदा स्थिरता के साथ खड़ी रहना. आज लड़कियां विभिन्न क्षेत्रों में अपना सकारात्मक योगदान प्रदान कर रही हैं. वे आत्मनिर्भर हैं. अपने परिवार और देश का हित करने में संलग्न हैं. ऐसे में अगर पुत्रियों की अवहेलना होगी तो समाज और देश का अहित ही होगा. महिलाओं के प्रति इस प्रकार का दृष्टिकोण वाकई त्रासदी है.
आज महिलाओं और बच्चियों के अधिकारों को लेकर समाज में घोर द्वंद चल रहा है. संसद में सिर्फ कानून बना कर हम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकते हैं. इसलिए लिए औरत को खुद अपनी सोच बदलकर आगे आना होगा. सरकार कोई भी हो वह कितना लोगों की सोच को बदलेगी आखिर . प्रियंका, ऐश्वर्या दीपिका जहाँ बॉलीवुड, टॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक छाई हुई हैं वहीँ देश में बच्चियों को पैदा होते ही ख़त्म होना पड़ता है.
फ़िलहाल ज़रुरत है बेटियों के लिए ख़ास तरह के आर्थिक स्वालंबन योजनायें चलाई जाएँ, जिससे बेटियों की शादी और स्वावलंबन को लेकर समाज की चिंता को बदला जा सके. वक्त है की लोग सोच को बदलकर बेटियों को एक स्वछन्द आकाश उपलब्ध करवाएं ताकि वे खुली सोच के साथ पंछी बन उड़ान भर सकें. हमने स्त्री के लिए जो सोच बना रखी है ‘अबला तेरी यही कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी ..' उसे बदला जाए. एक लड़की को अबला की जगह शुरुआत से ही सबला बना कर समाज के सामने प्रस्तुत करना चाहिए. बाल अधिकारों में बेटियों को उनके पूरे हक अदा करने होंगे. ताकि वो भी साक्षी, दीपा और सिन्धु की तरह देश का नाम रौशन कर सकें.
No comments:
Post a Comment