कुछ दिनों पहले एक दोस्त से बात हो रही थीं. कह रहा था कि एक्स-प्रेमिका पिछले आठ-दस दिनों से अक्सर फोन कर रही है. अब मतलब एक्स थी तो ब्रेक -अप भी हुआ ही होगा शायद . दरअसल ब्रेक-अप हुआ ही नहीं था. परेशानी ये थी की लड़की काफी काबिल थी और लड़का अपने स्ट्रगल पीरियड से गुज़र रहा था. लड़की ने पिछले एक साल से बात ही नहीं की और जब लड़का. बात करने की कोशिश करता भी तो वो घर वालों का डर दिखाने लगती थी. आज लड़का कुछ कर रहा है. थोडा सा कामयाब हो रहा है तो लड़की फिर से कांटेक्ट करने कि कोशिश कर रही है. अब बात करते हैं अपने सामाजिक ढांचे की जहाँ दहेज़ लेना और देना दोनों ही बुरी बात हैं. लड़की पढ़ी-लिखी है, कमाती है. ऐसे में लड़का अगर दहेज़ लेता है तो वो और उसका परिवार दोनों ही सज़ा के काबिल हैं . लड़की पढ़ी लिखी कमाऊ नहीं भी है और लड़के वाले दहेज़ ले रहे हैं. तब तो और भी सजा के काबिल है. ये होना ही चाहिए क्योंकि दहेज़ प्रथा की शुरुआत एक सकारात्मक तरीके से हुई लेकिन समाज ने उसे सहूलियत और ज़रुरत के हिसाब से एक दूसरा ही अनजाम बना डाला. जहाँ दहेज़ भेंट नहीं बल्कि लड़की के माँ- बाप के लिए एक अभिशाप बन कर सामने आई और जिसके कारण न जाने कितनी बेटियों ने जान कि अहूती दी. लेकिन हमें दूसरे पक्ष की तरफ़ भी देखना चाहिए.
अक्सर लड़कियां कहती हुई मिल जाएँगी कि ये पुरूषों कि बनायीं हुई हिप्पोक्रेट दुनिया है जहाँ लड़के खूबसूरत पढ़ी लिखी लड़की ही चाहते हैं. हाँ बेशक है, मर्दों ने इसे अपने हिसाब से बनाया है और औरतों को उसी के अनुसार रहने के लिए उनकी सोच बना डाली है. लेकिन मुझे तब समझ नहीं आता जब लड़कियां अपना बॉयफ्रेंड 'टॉल, डार्क, हैंड्सम' ढूंढती हैं. वो पढ़ा लिखा होना चाहिए, कमाऊ होना चाहिए, घर जागीर होनी चाहिए और खुले विचारों वाला तो होना ही चाहिए.
क्यों भाई? तब तुम्हारी हिप्पोक्रेसी नहीं होती ये ? तुम उस दौरान उस लड़के का साथ नहीं दे सकती जो उसका स्ट्रगल का वक्त है ? जब उसे तुम्हारी सबसे ज्यादा ज़रुरत होती है ! उस वक्त आपको वेल सेटल्ड लड़का चाहिए.... जब तक चला तब तक चला जब घर वालों ने अच्छा लड़का खोज लिया तो शादी उस से कर ली. ठीक वैसे ही...आजकल तलाक के किस्सों में दूसरा पहलु भी दिखने लगा है. अब तक लड़के ही लड़कियों को छोड़ते हुए दिखते थे. तब अक्सर लेखक सिर्फ औरतों का ही रोना रोते थे. लेकिन दूसरे पहलु को अक्सर अनदेखा कर जाते थे. सोचा है कभी उस लड़के के घर वालों पर क्या गुज़रती होगी. वो किस ट्रामा से गुज़रते हैं ? क्योंकि मर्द अक्सर तलाक़ देते हैं ...उनके एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर होते हैं...इसीलिए सबको एक लकड़ी से हांकना शुरू कर दिया...लड़के वाले दहेज़ भी न लें और जब आपकी बेटी तलाक लेना चाहे तो उसे मुआवज़े में पैसा भी लड़के वाले ही दें!
ये आपकी हिप्पोक्रेसी नहीं है ?
समाज एक सोच से नहीं चलता...तुम अपनी दसों उँगलियाँ घी में रखना चाहती हो ...और सिर कढाई में ...अगले बन्दे को अकेला बंजर में छोड़ कर. एक औरत होने के नाते हम अपने अधिकार आज मांग ही नहीं रहे, हम लड़कर ले रहे हैं. ऐसे में हमें ज़रुरत है कि हम सामने वाले के अधिकारों कि भी उतनी ही इज्ज़त करें. क्योंकि हम जो मांग रहे हैं वो हमारे हक़ हैं लेकिन हमारा कोई हक नहीं बनता कि हम दूसरों के हकों को छीनें या उनका गलत फायदा उठायें. देखा जाए तो समाज में पुरुष भी औरतों को उनके हकों कि पाने कि कवायत में उनके साथ हैं.
जब हम कहते हैं कि एक एमसीपी से शादी नहीं करेंगे तो यहाँ हमें भी अपने खयालातों को लेकर लिबरल बनना चाहिए. आज क्योंकि ‘विमेंस डे’ है तो वुमनहुड को गर्व और सम्मान के साथ हमें मानना चाहिए. जहाँ औरत के अधिकार और समानता की बात आती है, वहां हमें पीछे नहीं हटना चाहिए. शुरुआत हमसे होगी और हमें ही करनी होगी. क्यों न आज एक दृढ निश्चय ये लें कि आज से अगर हम किसी के घर कि ‘बाई’ नहीं बनना चाहती तो किसी को एटीएम भी नहीं समझना चाहिए. पुरूषों की जवाबदेही उन्ही की भाषा में करनी होगी. तभी हम अपनी आने वाली पीढ़ी को सही मायनों में समानता का अधिकार समझा सकेंगे.
क्यों भाई? तब तुम्हारी हिप्पोक्रेसी नहीं होती ये ? तुम उस दौरान उस लड़के का साथ नहीं दे सकती जो उसका स्ट्रगल का वक्त है ? जब उसे तुम्हारी सबसे ज्यादा ज़रुरत होती है ! उस वक्त आपको वेल सेटल्ड लड़का चाहिए.... जब तक चला तब तक चला जब घर वालों ने अच्छा लड़का खोज लिया तो शादी उस से कर ली. ठीक वैसे ही...आजकल तलाक के किस्सों में दूसरा पहलु भी दिखने लगा है. अब तक लड़के ही लड़कियों को छोड़ते हुए दिखते थे. तब अक्सर लेखक सिर्फ औरतों का ही रोना रोते थे. लेकिन दूसरे पहलु को अक्सर अनदेखा कर जाते थे. सोचा है कभी उस लड़के के घर वालों पर क्या गुज़रती होगी. वो किस ट्रामा से गुज़रते हैं ? क्योंकि मर्द अक्सर तलाक़ देते हैं ...उनके एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर होते हैं...इसीलिए सबको एक लकड़ी से हांकना शुरू कर दिया...लड़के वाले दहेज़ भी न लें और जब आपकी बेटी तलाक लेना चाहे तो उसे मुआवज़े में पैसा भी लड़के वाले ही दें!
ये आपकी हिप्पोक्रेसी नहीं है ?
समाज एक सोच से नहीं चलता...तुम अपनी दसों उँगलियाँ घी में रखना चाहती हो ...और सिर कढाई में ...अगले बन्दे को अकेला बंजर में छोड़ कर. एक औरत होने के नाते हम अपने अधिकार आज मांग ही नहीं रहे, हम लड़कर ले रहे हैं. ऐसे में हमें ज़रुरत है कि हम सामने वाले के अधिकारों कि भी उतनी ही इज्ज़त करें. क्योंकि हम जो मांग रहे हैं वो हमारे हक़ हैं लेकिन हमारा कोई हक नहीं बनता कि हम दूसरों के हकों को छीनें या उनका गलत फायदा उठायें. देखा जाए तो समाज में पुरुष भी औरतों को उनके हकों कि पाने कि कवायत में उनके साथ हैं.
जब हम कहते हैं कि एक एमसीपी से शादी नहीं करेंगे तो यहाँ हमें भी अपने खयालातों को लेकर लिबरल बनना चाहिए. आज क्योंकि ‘विमेंस डे’ है तो वुमनहुड को गर्व और सम्मान के साथ हमें मानना चाहिए. जहाँ औरत के अधिकार और समानता की बात आती है, वहां हमें पीछे नहीं हटना चाहिए. शुरुआत हमसे होगी और हमें ही करनी होगी. क्यों न आज एक दृढ निश्चय ये लें कि आज से अगर हम किसी के घर कि ‘बाई’ नहीं बनना चाहती तो किसी को एटीएम भी नहीं समझना चाहिए. पुरूषों की जवाबदेही उन्ही की भाषा में करनी होगी. तभी हम अपनी आने वाली पीढ़ी को सही मायनों में समानता का अधिकार समझा सकेंगे.
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