‘केंद्रिय फिल्म प्रमाणन बोर्ड’ ने हाल ही में पंजाब में ड्रग्स की समस्या को उजागर करती फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ फिल्म में अस्सी से ज्यादा कट लगाने के बाद न सिर्फ फिल्म ही विवादों में आई बल्कि बोर्ड भी विवादों के घेरे में आ गया। सोमवार को बॉम्बे हाईकोर्ट ने फैसला सुनाते हुए सेंसर बोर्ड को दो दिनों के भीतर ही सर्टिफिकेट जारी करने को कहा है, हालाँकि फिल्म को ‘अ’ सर्टिफिकेट मिलेगा । साथ ही अदालत ने ये भी कहा है की ‘उड़ता पंजाब’ में ऐसा कुछ भी नहीं है जो देश की संप्रभुता और अखंडता पर सवालिया निशान लगाए । फिल्म में शाहिद कपूर जहाँ एक दृश्य में पेशाब करते हुए दिखाए गए हैं उसे निकाल दिया जायेगा. साथ ही फिल्म में तीन डिस्क्लेमर भी लगाये जायेंगे जिनमें अपशब्दों को इस्तेमाल किया गया है. ऐसे में खुद सेंसर बोर्ड के सदस्य और फिल्मकार अशोक पंडित ने कहा है कि ‘ये रचनात्मकता की जीत है और सन्देश है कि लोग किसी भी तरह से चीज़ों को मनमर्जी नहीं चला सकते हैं’.
http://epaper.rajexpress.in/Details.aspx?id=237&boxid=4493561 : राज एक्सप्रेस के संपादकीय में प्रकाशित |
क्योंकि भारत में प्रेस में भी स्वतंत्रता है और इसीलिए ऐसी स्वतंत्रता सिनेमा को भी दी गयी है. लेकिन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (A) के अनुसार जहाँ भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गयी है वहीँ इसे सीमित कर लिया गया है 19 (बी) में , और यहाँ सिनेमा को सीमित करने का ज़िम्मा CBFC के कन्धों पर डाला गया है । इस संस्था का गठन इसीलिए किया गया था कि दर्शकों तक स्वस्थ मनोरंजन पहुँच सके और पारदर्शिता बनी रहे । लेकिन ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि स्वंतंत्रता नाम मात्र की रह जाती है । फिल्मों पर बेधड़क कैंची चलती है ।
उड़ता पंजाब पहली फिल्म नहीं है जो सेंसर बोर्ड के कारण विवादों के घेरे में आई है । सिनेमा के इतिहास में पहली फिल्म जो बैन हुई वो थी ‘नील आकाशेर नीचे’ (1959) । 1975 में आई फिल्म ‘आंधी’ जिसे इंदिरा गाँधी पर आधारित फिल्म माना गया था को आपातकाल के दौरान रिलीज़ ही नहीं होने दिया गया, उसके बाद ‘किस्सा कुर्सी का, गर्म हवा, सिक्किम इत्यादि फिल्में। डायरेक्टर शेखर कपूर की फिल्म 'बैंडिट क्वीन' को सेंसर ने वल्गर और इनडिसेंट कंटेंट के चलते बैन कर दिया था। फिल्म की कहानी फूलन देवी पर आधारित थी, जिसमें सेक्शुअल कंटेंट, न्यूडिटी और अब्यूसिव लैंग्वेज के चलते सेंसर ने आपत्ति जताई थी। डायरेक्टर दीपा मेहता की फिल्म 'फायर' में हिंदू फैमिली की दो सिस्टर-इन-लॉ को लेस्बियन बताया गया है। फिल्म का शिवसेना समेत कई हिंदू संगठनों ने काफी विरोध किया था। यहां तक कि फिल्म की डायरेक्टर दीपा मेहता और एक्ट्रेस शबाना आजमी व नंदिता दास को जान से मारने की धमकी तक दी गयी थी । अनगिनत विवादों के उपरांन्त आखिरकार सेंसर ने इसे बैन कर दिया। डायरेक्टर मीरा नायर की फिल्म 'कामसूत्र' (1996) ‘काम’ पर आधारित थी। फिल्म में काफी हद तक खुलापन देखा जा सकता था। फिल्म में 16वीं सदी के चार प्रेमियों की कहानी बताई गई थी। फ़िल्म क्रिटिक्स को तो ये मूवी बहुत पसंद आई लेकिन सेंसर बोर्ड को नहीं। और आखिरकार फिल्म को बैन कर के दम लिया गया । राइटर एस हुसैन ज़ैदी की किताब पर बनी फिल्म 'ब्लैक फ्राइडे' (2004 )अनुराग कश्यप की दूसरी फ़िल्म थी, जिसे सेंसर बोर्ड ने बैन किया था। 1993 में हुए मुंबई बम ब्लास्ट पर आधारित ये फिल्म काफी विवादों में रही. उस समय बम ब्लास्ट का केस कोर्ट में चल रहा था इसीलिए हाई कोर्ट ने इस फ़िल्म की रिलीज़ पर स्टे लगा दिया था । दीपा मेहता की दूसरी फ़िल्म वाटर (2005 ), जो विवादों में फंसी थी । एक भारतीय विधवा को सोसायटी में कैसे-कैसे हालातों से गुज़रना पड़ता है, इसी ताने बने में गुंथी हुई फिल्म थी । वाराणसी के एक आश्रम में शूट हुई इस फ़िल्म को अनुराग कश्यप ने लिखा था। सेंसर बोर्ड को ये सब्जेक्ट समझ नहीं आया। इसके अलावा कई संगठनों ने इस फ़िल्म का विरोध किया। आखिरकार सेंसर को यह फिल्म भी बैन करनी पड़ी। परजानिया (2005) फिल्म गुजरात दंगों पर आधारित थी कुछ लोगों ने इसे सराहा तो कई ने इसे क्रिटिसाइज भी किया। वैसे तो परज़ानिया को अवॉर्ड मिला। लेकिन गुजरात दंगे जैसे सेंसेटिव सब्जेक्टर कीवजह से इस फ़िल्म को गुजरात में बैन कर दिया गया था। अनुराग कश्यप और सेंसर बोर्ड की दुश्मनी मानों काफी पुरानी है। उनकी फ़िल्म 'पांच' जोशी अभ्यंकर के सीरियल मर्डर (1997) पर बेस्ड थी। सेंसर बोर्ड ने इस फ़िल्म को इसलिए पास नहीं किया क्योंकि इसमें हिंसा, अश्लील लैंग्वेज और ड्रग्स की लत को दिखाया गया था। ‘सिंस’ (2005) यह फ़िल्म केरल के एक पादरी पर बेस्ड थी, जिसे एक औरत से प्यार हो जाता है। दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी बन जाते हैं। कैसे ये पादरी, समाज और धर्म की मर्यादाओं के बावजूद अपने प्यार को कायम रखता है, यही फ़िल्म की कहानी है। कैथलिक लोगों को यह फ़िल्म पसंद नहीं आई थी क्योंकि इसमें कैथलिक धर्म को अनैतिक ढंग से दिखाया गया था। सेंसर बोर्ड को इस फ़िल्म के न्यूड सीन से परेशानी थी इसीलिए उसने इसे बैन कर दिया। श्रीधर रंगायन की फिल्म 'द पिंक मिरर' (2003) सेंसर बोर्ड को इसलिए पसंद नहीं आई क्योंकि इसमें समलैंगिक लोगों (ट्रांससेक्शुअल और गे टीनेजर) के हितों की बात बताई गई है। दुनिया के दूसरे फेस्टिवल्स में इस फ़िल्म को सराहा गया था लेकिन भारत में सेंसर बोर्ड ने इसे बैन कर दिया था। फ़िराक (2008) दूसरी फ़िल्म है, जो गुजरात दंगों पर बनी। प्रोड्यूसर्स के मुताबिक यह फ़िल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित थी , जो गुजरात दंगों के समय हुई थीं। एक्ट्रेस नंदिता दास को इस फ़िल्म के लिए कई संगठनों से काफ़ी विरोध झेलना पड़ा था। आखिरकार सेंसर बोर्ड ने इसे बैन कर दिया। हालांकि कुछ समय बाद जब ये फ़िल्म रिलीज़ हुई, तब इसे आलोचकों और दर्शकों से काफ़ी तारीफ मिली थी। डायरेक्टर पंकज आडवाणी की फिल्म 'उर्फ प्रोफेसर' भी सेंसर बोर्ड के के शिकंजे से बच नहीं पाई थी। इस फिल्म में मनोज पाहवा, अंतरा माली और शरमन जोशी जैसे एक्टर थे। हालांकि वल्गर सीन और खराब लैंग्वेज के कारण सेंसर बोर्ड ने इसे पास नहीं किया। ‘इंशाल्लाह फुटबाल’ दरअसल यह एक डाक्यूमेंट्री है, जो एक कश्मीरी लड़के पर बनी है। यह लड़का विदेश जाकर फुटबॉल खेलना चाहता है लेकिन उसे देश से बाहर जाने की आज्ञा नहीं मिलती क्योंकि उसका पिता टेरेरिस्ट एक्टिविटीज से जुड़ा हुआ है। फ़िल्म का मोटिव था कि आतंकवाद के चलते, कश्मीरी लोगों की परेशानियां दुनिया के सामने लाएं लेकिन कश्मीर का मसला हमेशा से ही सेंसेटिव रहा है। इसी वजह से सेंसर बोर्ड ने इसे रिलीज़ ही नहीं होने दिया। डेज्ड इन दून (2010) दून स्कूल देश के फेमस स्कूलों में से एक है। इस फ़िल्म की कहानी एक लड़के की ज़िन्दगी पर बेस्ड है, जो दून स्कूल में पढ़ता है और फिर ज़िन्दगी उसे एक अलग ही सफ़र पर ले जाती है। दून स्कूल मैनेजमेंट को यह फ़िल्म पसंद नहीं आई। उनका मानना था कि ये फ़िल्म दून स्कूल की इमेज को नुकसान पहुंचा सकती है। यही वजह रही कि सेंसर ने इसे रिलीज ही नहीं होने दिया। इसके अलावा हालिया उदहारण ‘काफ़िरों की नमाज़’ फिल्म है जिसे रिलीज़ ही नहीं होने दिया गया । लेकिन फिल्म निर्माता चुप नहीं बैठे और फिल्म को यू-ट्यूब पर रिलीज़ किया, और फिल्म को काफी सराहना भी मिली.
विश्व का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग भारत में है और यहाँ हर साल लगभग 1300 फीचर फ़िल्में या उस से भी अध्दिक बनती हैं, एक बड़ी संख्या में लघु फिल्में बनायीं जाती हैं अलग –अलग भाषाओँ में । अनुमान ऐसा भी है की यहाँ रोजाना तकरीबन 1.50 करोड़ लोग देशभर के 13,000 सिनेमाघरों में , वीडियो, केबल, ऑनलाइन फिल्में देखते हैं । ये भी कहा जा सकता है कि हर दो महीने में लगभग भारत की सम्पूर्ण जनसँख्या के बराबर लोग सिनेमाघरों में शिरकत करते हैं ।
क्योंकि ये एक बहुत बड़ा उद्योग है और इसीलिए लाखों लोगों को रोज़ी रोटी भी प्रदान करता है । फिल्म निर्देशक, निर्माता अपनी अपनी कलाओं को बेहतर से बेहतरीन दिखाने में प्रयासरत रहते हैं ताकि अच्छी से अच्छी कमाई या मुनाफा हो सके क्योंकि इसमें निवेश भी उसी प्रकार का होता है ।
अब ऐसे में बात करें क्रिएटिविटी और उसके लिए स्वतंत्रता की । जहाँ अक्सर रचनात्मकता को श्लीलता और अश्लीलता की कसौटी पर रखा जाता है और उसका दम घोंट दिया जाता है. ऐसे में ये कौन निर्धारित करेगा की श्लीलता का पैमाना क्या है? सेंसर बोर्ड की कैंची अक्सर फिल्मों पर चलती है और कई दफे ऐसी चलती है की फिल्म की रूह तक को ख़त्म कर दिया है । क्योंकि सिनेमा सबसे सशक्त मध्यम है जन्संचार का। ऐसे में क्यों और कब तक सिनेमा को लोगों का मोहताज रहना होगा । ये एक बड़ा सवाल है, ये लोगों के लिए बना ऐसे में यदि किसी मुद्दे के सच को तथ्यों के साथ रखा जाता है तो परेशानी क्या है ? दर्शकों को इस बात का निर्धारण करने दें की वो क्या देखना चाहते हैं और क्या नहीं । क्योंकि आज का दर्शक काफी समझदार है और उसे पता है की उसे क्या देखना है और क्या नहीं । ऐसे में उन्हें स्वतंत्रता दी जानी चाहिए न की प्रतिबन्ध लगाये जाने चाहिए । क्योंकि ये बात भी सच है की जिस चीज़ को जितना छुपाया जाता जाता है लोगों में उसे जानने की उत्सुकता उतनी ही बढती है । इस सारे विवाद में फिल्म का एक सबसे बड़ा फायदा ये ज़रूर हुआ है कि फिल्म को पब्लिसिटी या प्रमोशन की ज़रुरत नहीं पड़ी । खुद CBFC ने ही इतना हो हल्ला मचा कर फिल्म को लोगों तक पंहुचा दिया ।
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