राज एक्सप्रेस में 15 अप्रैल '2016 को प्रकाशित |
संसदीय समिति ने भ्रामक प्रचार और विज्ञापन करने वाले सेलिब्रिटीज़ को अब जवाबदेही के लिए, कंज्यूमर प्रोटेक्शन बिल में संशोधन के लिए रिपोर्ट दी है। सिफारिशों के मुताबिक पहली बार ऐसा प्रचार करते हुए पाए जाने पर 10 लाख रुपये का जुर्माना और दो साल की जेल अथवा दोनों का प्रावधान हो सकता है. वहीँ दूसरी बार ऐसा होने पर 50 लाख रुपये तक की पेनल्टी और 5 साल की सजा हो सकती है या दोनों भी हो सकते हैं. लेकिन यदि बार- बार ऐसा किया जा रहा होगा तो उत्पाद अथवा सर्विस की बिक्री के आधार पर पेनल्टी लगाई जा सकती हैं.
इन सभी सिराफिशों को जल्द ही संसद में रखा जायेगा. गौरतलब है कि यदि संसदीय समिति की इन सिफारिशों को इंडियन कंज्यूमर प्रोटेक्शन बिल में शामिल किया जाता है तो प्रचार करने वाली नामी हस्तियों को कोई भी कॉन्ट्रैक्ट साइन करने से पहले इन सभी बातों से सहमत होना होगा. ये सिफारिश कोई एक दिन की उपज नहीं है लगभग पिछले तीन सालों से इस पर काम हो रहा है था साथ ही उपभोक्ता मामलों में मंत्रालय के पैनल ने इसमें दो और वर्षों को जोड़ा है और काफी बड़ी पेनल्टी लगाए जाने की मांग की है. जिसके पीछे वजह दी है की झूठे दावों के ज़रिये एक उत्पाद की बिक्री को बढ़ाने का काम किया जाता है, जिस पर सभी की सहमत राय ये थी की मैनूफेक्चरर और प्रमोटर के साथ सेलिब्रिटीज को भी जवाबदेह होना चाहिए. देखा जाये तो इस संदर्भ में गठित संसदीय समिति के प्रमुख तेलुगूदेशम पार्टी के सांसद जे.सी. दिवाकर रेड्डी ने भ्रामक प्रचार से प्रॉडक्ट या सर्विस की बिक्री के आधार पर पेनल्टी की मात्रा तय करने की भी मांग की थी।
ऐसे में विख्यात ब्रांड कंस्लटेंट हरीश बिजूर का कहना है कि ऐसा होना सही है, क्योंकि लोग सेलेब्रिटी को देखकर ही प्रोडक्ट पर भरोसा करते हैं।
विज्ञापन सामान्यतः किसी वस्तु विधा या सेवा से उपभोक्ताओं की जानकारी करवाता है. उसमें खरीदने की इच्छा जागृत करता है और साथ ही बाज़ार में उपलब्ध वस्तुओं के चयन में हमारी सहायता करता है. कई बार ये उपभोक्ता के जीवन में सहायक भूमिकाएं निभाते हैं लेकिन कई बार विज्ञापन भ्रामकता भी बढ़ता है जिससे इतना गहरा प्रभाव पड़ जाता है कि किसी एक विशेष उत्पाद की उपभोक्ता को आदत पड़ जाए.
वैश्वीकरण और बाज़ारीकरण के इस दौर में विज्ञापन मीडिया जगत का संपूरक बन चुका है. फिर चाहे बात समाचार पत्रिकाओं कि हो रेडियो या टेलीविज़न साथ ही डिजिटल मीडिया जो इतनी तेज़ी से बढ़ रहा है और भविष्य है जनसंचार माध्यम का. ऐसे में इनका कार्यक्रमों के साथ ही साथ इनका ध्यान विज्ञापनों पर भी होता ही है.
जनवरी में भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) ने पतंजलि आयुर्वेद के बालों के तेल उत्पाद केश कांति संबंधी विज्ञापन को भ्रामक पाया है। परिषद का कहना था कि कंपनी विज्ञापन में किए गए दावों के समर्थन में कोई क्लिनिक्ल साक्ष्य पेश नहीं कर पाई है। इसके साथ ही परिषद ने भारती एयरटेल, आइडिया सेल्यूलर, फ्लिपकार्ट, मायंत्रा, बजाज ऑटो, निसान मोटर और इंडिगो एयरलाइंस सहित विभिन्न कंपनियों के 37 विज्ञापन अभियानों के खिलाफ शिकायतों को भी सही पाया था. गौरतलब है कि उक्त कंपनियों के विज्ञापन भी भ्रामक बताते हुए शिकायत की गई थी। वहीँ 2014 में भारतीय विज्ञापन मानक परिषद (एएससीआई) विज्ञापनों में भ्रम के आरोप में दर्ज 136 शिकायतों में से 99 को सही ठहराया। इनमें प्रॉक्टर एंड गैंबल, आईटीसी, मारिको और डाबर जैसी दिग्गज कंपनियों के विज्ञापन भी हैं।
ऐसे में यदि ये बिल पास हो जाता है तो इस प्रकार के भ्रामक विज्ञापनों पर कहीं न कहीं ज़रुर रोक लगेगी.
आज विज्ञापनों की दुनिया इतनी बड़ी हो चुकी है कि यदि कोई कंपनी किसी नामी सेलेब्रिटी को किसी कैम्पेन प्रोजेक्ट के तहत साईन करती है तो एक दस से पच्चीस करोड़ रुपये तक देती है. अब बात आती है उत्पाद कि गुणवत्ता और किये गए वादे की जो उपभोक्ताओं से किया जाता है, उदहारणस्वरुप ‘आठ दिनों में गोरापन’, ‘इंस्टेंट गोरापन’, आठ दिनों में वज़न कम करें’, ‘अपना लक पहन कर चलो’, इसको लगा डाला तो लाइफ जिंगालाला’ इत्यादि टैगलाइन्स भ्रामकता पैदा करने के लिए काफी हैं. वहीँ कई बार देखने को मिलता है की बड़ी-बड़ी फिल्म, क्रिकेट , टेनिस सेलिब्रिटीज कई ऐसे उत्पादों का प्रचार करती हुई नज़र आती हैं जो वो खुद इस्तेमाल में नहीं लाते हैं लेकिन एक बड़ी राशि के बदले ये सेलिब्रिटीज तेल, नमक, चाय, बिस्कुट इत्यादि बेचते हुए नज़र आते हैं.
पिच मेडिसिन एडवरटाईजिंग रिपोर्ट के आंकड़ों पर यदि ध्यान दिया जाए तो हम देखते हैं 2015 में टीवी विज्ञापन के क्षेत्र में 22 फ़ीसदी बढ़ोतरी हुई थी. 18,629 करोड़ रुपये की अनुमानित विज्ञापन आय के साथ, प्रिंट की 2016 में दस फ़ीसदी बढ़ोतरी की उम्मीद है.
कैरेट की रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में जहाँ डिजिटल 15.7 रहा और 2016 में 14.3 फीसदी की वृद्धि हो सकती है. मोबाइल और ऑनलाइन विडियो विज्ञापन खासकर सोशल मीडिया में हुए विज्ञापनों के चलते होगा. वहीँ 2017 में भारतीय लक्ज़री मार्किट 14 बिलियन डॉलर से बढ़कर 18 बिलियन हो जाने की उम्मीदें हैं. ऐसे में ध्यान देने योग्य बात ये है कि भारतीय मार्किट में विज्ञापनों का मार्किट हर साल बढ़ रहा है. विदेशी कंपनियों का निवेशीकरण साल-दर-साल बढ़ रहा है. ज़ाहिर है कि कंपनियां किसी भी अपने उत्पाद को बेचने के लिए सेलिब्रिटीज को मुंहमांगी कीमत देने में पीछे नहीं हटती हैं. वहीँ एक और दृष्टिकोण देखने को मिलता है, जहाँ चुनावी दौर में बड़े बड़े राजनेता बड़े बड़े दावे करके सब्जबाग दिखाते हैं देश को भूख, गरीबी, भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए लेकिन होता ढ़ाक के तीन पात हैं.
ध्यान दिया जाए तो भ्रामक विज्ञापनों का सीधा नकारात्मक असर दिखता है. लोग अपनी कम आय के होने का बावजूद ऐसी भ्रामक उत्पादों के प्रति आकर्षित होते हैं और कई बार ये उत्पाद गुणवत्ता के मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं. ऐसे में ज़रूरी है कि कहीं न कहीं इन पर एक लगाम कसी जाए. सबसे महत्वपूर्ण बात होती है देश की संस्कृति के साथ खिलवाड़ करने की. तीज त्योहारों पर जहाँ लड्डू और मिठाई के ज़रिये मुंह मीठा करवाया जाता था अब उसकी जगह चॉकलेट और नमकीन लेने लगी हैं. शादी की रस्मों में जहाँ हल्दी चन्दन के उबटन होते थे वो अब निखारने वाली क्रीम लेने लगी हैं. फेहरिस्त बेहद बड़ी है.
विज्ञापनों का इतिहास अक्सर विवादस्पद रहा है. कभी क्रिएटिव को लेकर तो कभी श्लील और अश्लीतला के मानकों पर. लेकिन इस बार विज्ञापनों में सीधे तौर पर विज्ञापनों में साथ देने वाले सेलिब्रिटीज को निशाने पर रखा है. ये कहाँ तक ठीक है और कहाँ तक नहीं? क्या ऐसे में सेलिब्रिटीज को वाकई इन सभी विषयों की जांच पड़ताल करने के बाद ही किसी प्रोजेक्ट के लिए हामी भरनी चाहिए ? क्या एक सेलेब्रिटी विज्ञापन के लिए वाकई ज़िम्मेदार होना चाहिए? ये सब सवाल सामने हैं. ज़ाहिरी तौर पर एक सेलेब्रिटी उत्पाद की बिक्री में खास भूमिका निभाता है लेकिन, देखना ये है कि क्या इस प्रकार भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगाईं जा सकती है ?
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