बसपा के सांसद नरेंद्र कश्यप, उनकी पत्नी देवेंद्री और पुत्र सागर को उनकी बहू हिमांशी की संदिग्ध मौत के सिलसिले में गुरुवार को भारतीय दंड संहिता की धरा 498(ए) और 304(बी) और दहेज़ निरोधक कानून की धरा तीन-चार यशोदा अस्पताल से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया जहाँ वे सीने में दर्द की शिकायत के बाद भर्ती हुए थे। गौरतलब है कि 6 मार्च को हिमांशी सुबह तकरीबन 11 बजे सिर पर गोली लगने के बाद मृत अवस्था में बाथरूम में मिली. देखा जाये तो प्रथम दृष्टया दहेज़ का मामला सामने आ रहा है. ऐसे में हिमान्शी पहली लड़की नहीं है जिसे दहेज़ उत्पीडन के चलते अपनी जान से हाथ धोना पड़ा हो. हालाँकि हिमांशी की शादी काफी धूमधाम से हुई थी जहाँ उसकी विदाई भी हेलीकाप्टर में हुई थी.
गौरतलब है की देश में कई सख्त कानून बनाये गए हैं मसलन दहेज़ प्रताड़ना एक्ट या 498 ए (दहेज़ प्रताड़ना कानून 1983) जिसमें यदि कोई महिला दहेज़ प्रताड़ना से परेशान होकर अपनी जान देने की कोशिश करती है और इसकी शिकायत यदि वो पुलिस को कर देती है तो पति के साथ-साथ ससुराल वालों को भी उम्र कैद की सजा हो हो सकती है, 304बी( दहेज़ हत्या 1986) के अंतर्गत किसी भी महिला की मौत दहेज़ या उसे जलाने की कोशिश की जाती है तो घटना को अंजाम देने वालों के लिए कोई जुर्माना नहीं बल्कि सीधे ही उम्र कैद की सजा होती है ,वहीँ धारा 406 के अंतर्गत यही कोई भी पुरुष अपनी पत्नी को दहेज़ के लिए प्रताड़ित करता है तो उस समेत उसके परिवार वालों को इस धारा के चलते 3 साल की सजा जुर्माने के साथ हो सकती है. इसी के साथ भारत में दहेज़ निरोधक कानून भी मौजूद है जिसके अनुसार दहेज देना और लेना दोनों ही गैरकानूनी हैं . 1985 में दहेज निषेध नियमों को तैयार किया गया था. इन नियमों के अनुसार शादी के समय दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखा जाना चाहिए. इस सूची में प्रत्येक उपहार, उसका अनुमानित मूल्य, जिसने भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते का एक संक्षिप्त विवरण मौजूद होना चाहिए. लेकिन अधिकतर कानून फाइलों में बंद धूल में सने हुए जान पड़ते हैं. साथ ही कई बार ये कानून दम घोंटू भी साबित हुए हैं. जिनका गलत उपयोग भी पुरजोर से किया जाता है.
इन सभी कानूनों को बनाने के पीछे सामाजिक और वैधानिक पक्ष ये था कि इसके ज़रिये महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ कार्यवाहियां हो सकें, ताकि शादियाँ टूटने से बच सकें और न ही लड़की के घरवालों को उसके ससुराल वालों की मांगें पूरी करने के लिए क़र्ज़ लेना होगा. जिस से बेटियों को कोख में ख़त्म करने की रिवायत ख़त्म की जा सकेगी. लेकिन ऐसा दूर-दूर तक कुछ दिखाई नहीं पड़ता. जबकि दिखाई कुछ और दिखाई देता है यानि कि धाक के तीन पात . आजकल ज़बरन के शान-ओ-शौकत से होने वाली शादियों में भी किसी न किसी प्रकार लेन – देन हो ही जाता है या ये कहें कि दहेज़ पीढ़ी दर पीढ़ी अपने रूप बदलते हुए नज़र आता है.
2012 से 14 के आंकड़ों पर नज़र डालें तो लगभग 24,771 दहेज़ हत्या के मामले इस दौरान सामने आये हैं. जिनमें से सर्वाधिक मामले 7,048, देश से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में देखने को मिले हैं. उत्तर प्रदेश के बाद मध्य प्रदेश ने 3,830 और बिहार ने 2,252 के आंकड़ों को छुआ था. देखा जाए तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के रिकार्ड्स के अनुसार 87 फीसदी दहेज़ हत्या के मामलों के फैसले हर साल अधर में लटके होते हैं. वहीं 83 फीसदी से ज्यादा केस दहेज़ निरोधक कानून के अंतर्गत दर्ज होते हैं.
थोडा सा यदि पीछे जाकर देखें तो किसी भी लड़की की शादी के समय घर का मुखिया उसकी आगामी जीवन निर्वाह के लिए कुछ ज़रूरी गृहस्थी के सामान दिया करता था ताकि वो सुख पूर्वक अपना नया जीवन शुरू कर पाए. कुछेक जगह मान्यता ये भी थी की यदि पति की अकाल म्रत्यु हो भी जाती है तो लड़की के पास मायके से मिलने वाला ज़रूरी सामान रहे अपने जीविकोपार्जन के लिए. देखते- देखते लोगों की ज़रूरतें और लालसा बढ़ने लगी और ये इस प्रथा ने एक बीमारी का रूप अख्तियार कर लिया. सगाई से शुरू होने वाली ये मांगे विवाहोपरांत भी ख़त्म नहीं होने लगी. बेटी के बाप को दुनिया भर से क़र्ज़ लेकर शादी के रस्मों –रिवाज़ को पूरा करने के बाद तीज – त्योहारों पर बेटी के ससुराल में उपहार पहुँचाने होते हैं. आलम ये है कि ये जो बीमारी शुरु हुई थी अब ये महामारी का रूप अख्तियार कर चुकी है जिसकी चपेट में प्रतिवर्ष हजारों बहु-बेटियां आ रही हैं. ये कुप्रथा समाज की संस्कृति में इस तरह मिल गयी है कि समाज, समाज के ठेकेदार तथा भारत में व्याप्त अधिकतम धर्मों के धर्मगगुरुओं तक का चुप्प समर्थन प्राप्त है. क्योंकि समाज में समझ ही ऐसी बना दी गयी है कि इस कुप्रथा को समर्थन देने वाले केवल पुरुष नहीं हैं, अपितु महिलाएं भी संलिप्त होती हैं. इसमें गलती किसी की नहीं है, गलती है उस सोच की जो शुरू से ही दिमाग में बीज की तरह बो दी जाती है.
जैसा की मैंने ऊपर कहा कि देश में दहेज़ प्रथा हर बार नए रूप में सामने आने लगी है. आज संपन्न परिवारों को दहेज़ लेने- देने से शायद ही कोई परहेज दीखता हो , क्योंकि आजकल दहेज़ निवेश मात्र जैसा लगता है. क्योंकि धन-सम्पदा देने से समझ में उन्ही का रुतबा बढ़ता है और साथ ही वे अपनी बेटी का जीवन सुखों के लिय सिक्योर कर रहे हैं. लेकिन ये दुखदायी तब ज्यादा हो जाता है जब बात निर्धन अभिभावकों की आती है. वे चाहकर भी दहेज़ का उतना प्रबंध नहीं कर पाते नतीजतन लड़की को ससुराल में प्रताडनाओं का सामना करना पड़ता है और कई बार इसका खामियाजा उसे अपनी जान देकर भुगतना होता है.
आज खुले में वर पक्ष की ओर से लाखों के दहेज़ की बोलियाँ लगाईं जाती हैं. वहीँ कुछ शातिरों ने दहेज़ नाम से दूर रहने के लिए एक नया रास्ता भी इजाद कर लिया है. जहाँ दहेज़ के लिए तो सिरे से मना तो कर दिया जाता है लेकिन ये ज़रूर देखा जाता है कि लड़की कितना कमाने वाली है. गौरतलब है कि लड़कियां आज के ज़माने में अपने पैरों पर खड़ी होने की कुव्वत रखती हैं. लेकिन अब ये भी एक प्रकार से दहेज़ का रूप ले चुका है. लड़की अगर ज्यादा से ज्यादा कमाने वाली होगी तो उसकी कमाई घर में ही आएगी. देखा जाए तो दहेज़ हर दौर में नयी बोतल में पुरानी शराब की तरह विद्यमान है.
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