मैं यहाँ रोज़ बैठता हूँ,
बाजू में पड़ा वो गत्ता मुझे तुम्हारे होने का एहसास दिलाता है,
तुम सफ़ेद बूटी की साड़ी पहने हुए,
हरा शाल तुम्हारी कंधे पर ,
तुम्हारा वो सांवला रंग,
जो शाम की आगनी करता है,
मेरी आँखों की तपिश को सुकून पहुंचती हो,
तुम याद आती हो, और बहुत याद आती हो !
उम्र की वजह से झुक गया हूँ,
एक लाठी को मैंने अब अपना शागिर्द बना लिया है,
ये हमेशा मेरे साथ रहती है,
जब तुम थी, मेरा हाथ तुम थाम कर,
उस गली तक लेकर जाया करती थीं,
जो हमारा दिन भर का ठिकाना है,
ठिकाना अब भी है ये हमारा,
फर्क सिर्फ इतना है कि,
अब मैं यहाँ अकेला बैठा हूँ,
मैं जब भी मुट्ठी खोलता हूँ, तुम उसमें सिमट आती हो,
तुम याद आती हो, और बहुत याद आती हो !
तुम जानती हो ,
कल चलते हुए ये लाठी धोखा दे गयी थी ,
अचानक बीच रस्ते में इसने साथ छोड़ दिया,
घुटने से खूं भी झाँकने लगा,
लोग आकर मुझे सहारा दे तो रहे थे,
लेकिन उस धुंधलके में मेरी कमज़ोर आँख,
तुम्हे तलाश रहती थी,
मैं जानता हूँ,
तुम नहीं आओगी....
लेकिन फिर भी हर बार गिरने पर मुझे तुम सम्हाल जाती हो,
तुम याद आती हो, और बहुत याद आती हो !!
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