Friday, 10 August 2012

POPULAR CULTURE : वैश्विक बाज़ार के 365 दिन

      
                                 पॉपुलर कल्चर , पॉप   कल्चर या फिर लोकप्रिय कल्चर आज न सिर्फ शहर  जीवन बल्कि आंचलिक जीवन का भी हिस्सा बन चुका  है ! मॉल, मल्टीप्लेक्स से होकर आज पॉपुलर कल्चर प्रत्येक वर्ग की जीवन शैली में सेंध लगा चुका है ! यानि की ज़ाहिरी तौर पर आज लोकप्रिय कल्चर आम जन जीवन का हिस्सा  बन चुका है !यहाँ लोकप्रिय संकृति  को समझना तब ज़रूरी हो जाता है जब लोकप्रिय  संस्कृति  'लोक संस्कृति'  और 'जन-संस्कृति ' के अंतर में भ्रम उत्त्पन्न होने लगता है ..!
           यदि हम लोक संस्कृति को मोटे तौर पर जानें तो निश्चय ही लोकप्रिय संस्कृति में जन जीवन के सुख -दुःख और अंतर्विरोध सामूहिक लेकिन स्वतः स्फूर्त रूपों में होते हैं वहीँ 'जन-संस्कृति' के निर्माता इसका इस्तेमाल बतौर कच्चे माल के रूप में करते हैं, क्योंकि इसमें जनता की आकाक्षाएं  भ्रूण रूप में मौजूद होती हैं , अतः कहा जा सकता  है की आकाक्षाएं  शासक  वर्गीय  विचारधारा , जनता के पिछड़े चिंतन और परम्पराओं  से प्रभावित रहती हैं ! वहीँ 'लोक-संस्कृति ' मनुष्य की सामूहिक चेतना की सहज  अभिव्यक्ति होती है ! वह मनुष्य के सामाजिक अनुभवों का सर्जनात्मक रूपांतर है . लोक मंगल की कामना उसका सारतत्व है . उसकी वास्तु में जीवन के नैसर्गिक लयहोती है  ,वह स्तानीय हो सकती है और उसमे मनोरंजन के भरपूर तत्व भी हो सकते हैं लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए की उसका एक सामाजिक चरित्र  होता है . वह व्यक्ति को समूह के भीतर  है  और उसका सर्वांगिये  परोपकार करती है सामूहिकता उसकी सर्वप्रमुख विशेषता है और जहाँ तक कहा जाये " सामाजिक सहकर " उसका अर्थपूर्ण सन्देश है !!
  
      वहीँ 'लोकप्रिय  संस्कृति(पोपुलर कल्चर ) ' की रचनाएँ लोक संस्कृति  की तरह सामूहिक उत्पाद नहीं होती हैं .उनका उत्पादन जनता के चिंतन के स्तर  को बिठाये बिना  उन्हें बड़े पैमाने पर आकर्षित करने के लिए किया जाता है एक नज़रिए से देखा जाये तो उनमे  न सिर्फ तत्कालीन प्रभावी चिंतन पद्दति के मज़बूत प्रभाव होते हैं बल्कि वे इसे बल भी प्रदान करते हैं.
     आज हम लोकप्रिय संस्कृति  को यदि बाज़ार की अभिव्यक्ति  कहें तो शायद कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ! क्योंकि आज ये जो संस्कृति जिस रूप में सामान्य जन के सामने आई है वह  बाज़ार का मात्र प्रतिनिधित्व   करती है ! यदि बाज़ार की बात करें तो आज के बाज़ार की रन नीति पूर्ण रूप से जी.पी.एल( ग्लोबलाईजेशन, प्राईवेटाईजेशान और लिबरलायीजेशन)  की विचारधाराओं पर चलती है. आज के बाज़ार और पहले के बाज़ार में ज़मीन-असमान का अंतर है ( हालाँकि बाज़ार का मूल कार्य उपभोक्ताओं तक सुविधाओं को पहुँचाना है ) पहले का बाज़ार एक स्वाभाविक  और नैसर्गिक बाज़ार  था . आज के बाज़ार को हम इस अर्थ में अस्वाभाविक और अप्राकृतिक कह सकते हैं . क्योंकि आज ये बाज़ार सिर्फ उपभोग की आवश्यकताओं का आरोपण करता है .  उसके द्वारा पोषित -पालित  "उपभोक्ता-संस्कृति ' लुभावने विज्ञापनों के माध्यमों से पूरे  समाज में अपना प्रभुत्व स्थापित करती है . इस बाज़ार की नि : संकोच अपनी  एक विचारधारा  है , एक जीवन शैली है , और एक शिल्प  है . इस बाज़ार की अपनी एक संस्कृति भी है जिसके मुख्याधायरा के सभी लोग नुमाइंदे हैं . ये बाज़ार  वास्तविक 'लोक-संस्कृति' के सामानांतर  लोकप्रियता के नाम पर लोगों पर थोपी जाती है , जो की बाज़ार के हितों के अनुकूल होती हैं  . 'लोक प्रिय संस्कृति ' को प्रोद्योगिकी के माध्यम से लोकप्रिय बनाया जाता है . आज बाज़ार में दिन प्रतिदिन नयी-नयी तकनीक विकास से लैस यन्त्र और उपकरण लौंच हो रहे हैं . जिन्हें  यदि देखा जाये तो मुख्य  रूप से युवाओं को टार्गेट कर  बाज़ार उतरा जाता है . " उत्पादों को तैयार करने में लोकल टच और फील की  रणनीति को अपनाया  जाता है .

        लोकप्रिय संस्कृति ज़ाहिरी तौर पर बाज़ार की पैदाइश है . यदि देखा जाये तो आमतौर पर हमारे साल- भर में कुछेक पर्व आते हैं , और उन्हें मानाने के अवसर मिलते है . किन्तु इस संस्कृति में  साल भर के ३६५ दिन वैश्विक बाज़ार के पर्व मानाने के अवसर मिल जाते हैं .
    ये संस्कृति तीन 'म ' कारों के सहारे पैदा होती है - १) मनी, २) मार्केट, ३)मीडिया , यही कारण है की इन तीन 'म ' कारों के विकास और व्याप्ति के साथ -साथ लोकप्रिय संस्कृति भी बढती जा रही है . और इसका दायरा भी विकसित होता जा रहा है .

1 comment:

sv said...

is topic ke liye hamare juniors ke liye tere blog ka refrnc zarur dena chahiye :-)