Friday, 9 August 2013

मुंबई में जन्मदिन!!!!

     लोगों के बताये जाने के अनुसार कल  जन्मदिन था  मेरा. क्योंकि  ऑफिस था  इसीलिए पूरा दिन ऑफिस में ही बीता. शाम को  घंटे भर  के लिए सी फेस के सामने जा कर समुन्दर की लहरों को देखती रही. कुछ स्केच बनाये और घर वालों से बातें कीं और वापस पीजी की और चल पड़ी. हालाँकि मन तो नहीं था लौटने का. शाम के 8 बज गए थे...तो अँधेरा हो गया था. हलकी हलकी बूँदें अँधेरे और रौशनी में मिलकर छिटकी हुई चांदनी सी लग रहीं थी. बस में चढ़ी तो लगभग बस खाली ही थी. सीट मिली तो बड़ी ख़ुशी हुई. क्योंकि अगर मुंबई की बेस्ट बसों में आपको सीट मिलती है तो आप दुनिया के सबसे खुशनसीब  इंसान होते हैं. खैर...बैठी ही थी की भरतपुर से बड़ी दीदी का फ़ोन आ गया. जन्मदिन की शुभकामनायें दे रही थीं. काफी देर बात करने के बाद फोन जब काटा.. तो एक अधेढ़ उम्र की महिला ने मेरे दुपट्टे को  जो की  बराबर वाली सीट पर फैला हुआ था को समेटकर जोर से मेरे कंधे पर रखते हुए कुछ कहा.उसका हाथ जोर से मेरे मुह पे चांटे की तरह लगा.मैंने गुस्से से उसकी ओर देखने की कोशिश की तो बड़े अच्छे मुंबईया  लहजे में उसने  कहा "सॉरी बेटा...मै तेरे को छू गयी....तेरे को बुरा लगा क्या? "....अब मैंने उसे देखा....तो गुस्सा भूलते हुए मुंह  से बस ये ही निकला की "कोई बात नहीं " और अपने आप मुस्कुरा दी. उसकी उम्र तकरीबन 50 रही होगी.....मटमैली सी सीधे पल्ले की साड़ी पहन रखी थी अधपके  बालों का एक जूड़ा बना रखा था.ब्लाउज की सींवन कुछ खुली थी. हाथ में एक सफ़ेद थैली पकड़ी थी...वो फिर बोली..."मेरे से..गलती से लगा था...तेरे को बुरा लगा क्या?"  मैंने फिर से मुस्कुरा कर नामी भरी. अब उसने अपने पल्ले से में बंधे 20 रुपये के नोट को लेकर कंडक्टर को आवाज़ मारी...."ऐ....मेरे को एक अँधेरी का टिकट दे रे"...कंडक्टर  उसके पास आया और उसने टिकेट दिया तो लेकिन उनके बीच कुछ कहा सुनी हुई....मैंने ध्यान नहीं दिया..खिड़की के बाहर की बूंदों को देखने में व्यस्त थी. अब उस औरत ने फिर से मुझसे कहा " देखा न बेटा कैसे बोल रहा है मुझको ....कहता है तू मरती नहीं हैं...इसको तमीज नहीं है बोलने की. मैंने थोड़े हैरत भरे लहजे  में जवाब दिया " अरे ...ऐसे क्यों बोल रहा है?" ...वो फिर से बोली ..."देख न बेटा..मैं क्या इसके बाप का खाती हूँ ?....जो ये मेरे को ऐसे बोल रहा है...हुंह!! " इतना कह कर उसने मुह बनाया....मैंने भी कहा "बिलकुल सही बात है...आप बोलो उसे....की ऐसे क्यों बोल रहा है? " ....अरे मैंने बोला न की भडवे मैं तो अपनी बेटी को दवाई देने जा रही हूँ ..तू क्यों ऐसे बोल रहा है? " मैंने फिर से उसकी बात सुन कर सिर
 हिलाया...और पूछा की कहाँ जा रही  हो? कहाँ है रहती है बेटी ? .... इस बार उसकी आवाज़ थोड़ी से भारी हुई और उसने जवाब दिया "बेटा......मेरी बेटी अँधेरी में रहती है..बीमार है वो...इसलिए में उसको दवा देने जा रही है... वो बीमार है भोत दिन से ... मैं तो यहीं वरली में झाड़ू-पोचा करती है घरों में...शाम को कहीं भी  बिछा  के सो जाती है.... "  अब मुझे समझ आया की उसने क्यों कहा था कि "सॉरी बेटा..मैं तेरे को छु गयी "....दरअसल खुद को थोडा अलग समझने लगी थी वो  शायद क्योंकि वो घरों में झाडू पोछा करती है. या फिर लोगों ने छुआ-छूत कर करके उसे ये कहने पर मजबूर कर दिया था. खैर.... अबकी बार वो लगातार बोलती रही और मैं चुपचाप उसे सुन रही थी बिना बीच में टोके..." उसका दो बच्चा है...एक 2 साल का है और एक 8 साल का है....उसके ससुराल वाले इतने ख़राब है...वो उसको देखते भी नहीं है....सड़क पे ही सोती है दोनों बच्चों को लेके....उसने मुझे बोला मम्मी में बीमार हूँ...तो मैंने डॉक्टर से 200 रूपया माँगा...देख न बेटा अगर हमारा जुबान अच्छा होगा तो कोई भी पैसा देगा....इसके जैसे बोलेंगे तो कोई कैसे मदद करेगा?' उसने कंडक्टर की तरफ मुह बिचकाते हुए कहा...उसने थैली को मेरी तरफ खोलते हुए कहा देख न बेटा दावा और डॉक्टर वाला पानी ले जाती है मैं ....मैंने थैली में झाँका तो कुछ दवाइयों के पत्ते थे और एक निम्बूज़ की बोतल थी.

  खैर ...... इतने में मेरा बस स्टॉप आ गया और मुझे उतरना पड़ा. लेकिन वापस जाते हुए रस्ते भर सोचती रही की इस चमकते हुए शहर की लाइटों में कितनी ही ऐसी  गुमनाम और बेनाम जिंदगियां ख़ामोशी के अंधेरों में ना जाने कहाँ-कहाँ ग़ुम हो जाती हैं. जिनके जीने- मरने का कोई लेखा-जोखा नहीं होता. शाम को घर लौटते  वक्त देखती हूँ की लोग फुटपाथ पर बैठे दुकानों के बढ़ने (बंद) का इंतज़ार करते हैं.की कब इन दुकानों के शटर गिरें और कब उन्हें सोने की जगह मिले. कुछ जिंदगियों इनमे ऐसी भी होती हैं , जो सो तो जाती हैं उठ नहीं पाती फिर.
    दरअसल ये सुनहरी मायानगरी किसी की नहीं है. यहाँ कहने को यहाँ 18.41 मिलियन लोग रहते हैं (2011 के अनुसार) और हर साल 10 लाख लोग आते हैं. लेकिन इस भीड़ में कहीं  कोई किसी का नहीं है. सबके अपने काम हैं. और सभी अपने कामों में इतने व्यस्त हैं की किसी के लिए किसी के पास समय नहीं हैं. कोई किसी से बात भी तभी करता है जब उसे कुछ काम होगा.अँधेरा होने के बाद सड़क किनारे लोग पी कर बेसुध पड़े  नज़र आते हैं....मुंबई सरकार कहती है की इन लोगों की मदद करने का भी कोई फायदा नहीं है क्योंकि ये सभी पैसों की दारू पी जाते हैं. लेकिन कभी कोई ये पूछता है की ये पीते क्यों हैं? क्यों इन्होने ये बुरी मरने वाली लत लगाई है? ... नहीं !!!! कम से कम पीने के बाद इन लोगों को भूखे रहने पे होने वाले पेट दर्द तो तो नहीं सहना पड़ता, बार- बार भूखे रहने पे नींद तो नहीं खुलती. और ना ही किसी चिंता की शिकार होते...............................ऐसे में कितनी जिंदगियां हैं जो जीती ही मरने के लिए हैं..

1 comment:

Kiran Kumari said...

बेहद मार्मिक और हकीकत बयां करनेवाला लेख......