आज का टेलीविज़न कोई ईडियट बॉक्स से बदलकर स्मार्ट स्क्रीन का रूप अख्तियार कर चुका है. ये आज वो सब कुछ दिखता है जिसकी ज़रूरत रोज़मर्रा की जिंदगी में है. रसोई का सामान खरीदने से लेकर जीवन शैली को नजरिया देने में. ये आज मास मीडिया का किरदार बखूबी निभा रहा है.हिंदी धारावाहिकों की जड़ें आज मध्यवर्गीय घरों में काफी भीतर तक फ़ैल चुकी हैं. खान पान से लेकर ऐसे में ये बात सबसे महत्त्वपूर्ण है की धारावाहिकों को आज किस विषय पर केन्द्रित करके बनाया जा रहा है. या आज की रोज़मर्रा की जिंदगी में धारावाहिकों की क्या भूमिका है और कितना वो अपनी भूमिका को निभाते हैं. भारत में धारावाहिकों की शुरुआत सात जुलाई 1984 में "हम लोग" नामक बहुचर्चित धारावाहिक से हुई. जिसके लगभग एक सो छप्पन एपिसोड बने थे. 1982 में हम लोग की लोकप्रियता का आलम ये था की जब सीरियल शुरू होता था थो सड़कें सुनी हो जाती थीं. वो तीखे व्यंग के लिए भी जाने जाते थे. अगर उस दौर कि की जाये तो हम पाते हैं की अस्सी का दशक संपूर्ण विश्व में टेलीविज़न उद्योग में बढ़ते उदारीकरण और निजिकरण के लिए जाना जाता है. ऐसे में हम लोग का आना न सिर्फ दर्शक का एक अलग अनुभव था बल्कि भारत में बदलते अर्थशास्त्रीय और राजनैतिक परिवेश को भी दर्शा रहा था और न सिर्फ दर्शा रहा था बल्कि उसे देखने का दृष्टिकोण भी बदल रहा था. क्योंकि जहाँ 1984 में टेलीविज़न की पहुँच मात्र 28 फीसदी थी वहीँ 1985 के अंत तक पहुँचते-पहुँचते उसकी पहुँच बढ़कर 58 फीसदी हो गयी. ऐसे में एक साधारण कहानी ने लोगों के घरों में ऐसी जगह बना ली थी की आज तक उसकी यादें उनकी ज़हन में हैं. नयी पीढ़ी ने भले ही इस धारावाहिक को ना देखा हो लेकिन इस धारावाहिक ने नयी पीढ़ी के लिए बनने वाले धारावाहिकों के लिए रास्ता ज़रूर साफ़ किया.
ऐसे में टेलीविज़न के बढ़ते मुनाफे ने एक नयी होड़ शुरू कर दी. और नब्बे के दशक की शुरुआत से ही निजी चैनलों की बाढ़ ने टेलीविज़न को देखने का नजरिया ही बदल डाला. या ये कहें की दर्शक को एक नया नजरिया दे डाला. धीरे-धीरे सीरियलों की तादाद बढ़ने लगी आज का आलम ये है कि आये दिन एक नया सीरियल लांच होता रहता है. आज का टेलीविज़न एक फेक्टरी हो गया है.वक्त के साथ-साथ तकनीक में ज़मीन असमान का बदलाव देखा जा सकता है. धारावाहिकों में मार्केटिंग और सेल्स में फर्क आया है ज़रूरत और मांग के अनुरूप. लेकिन धारावाहिकों में कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिनमे बदलाव आज भी नहीं देखा जा रहा है. जैसे कि इनकी पटकथाएं और कंटेंट.
कहने को मास मीडिया का काम समाज दर्शाना है, समाज को परिलक्षित करना है. लेकिन अगर आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो हम कुछ और ही पाते हैं और ऐसे में धारावाहिकों के सन्दर्भ में बात करें तो आज धारावाहिक मात्र टेलीविज़न उद्योग मात्र बन कर रह गए हैं. क्योंकि अगर किसी भी धारावाहिक को पकड़कर बात की जाये तो देखा जा सकता है कि सीरियल बनाने वालों ने जिस प्रकार टेलीविज़न को एक फैक्टरी बनाया है. पैसा कमाने का उसमे हर प्रकार का प्रोडक्ट बेचा जा रहा है या ये कहें की धारावाहिकों ने बिज़नेस की आढ़ में पूरी तरह कर्तव्य परायणता की चादर ओढ़ ली है. एकाध धारावाहिक को छोड़कर देखा जाये तो कोई भी धारावाहिक ऐसा नहीं है जो अपनी सामाजिक भूमिका निभा रहा हो.
आज धारावाहिकों में रंगबिरंगी और कीमती साड़ियों के अलावा कोई सन्देश नहीं देखा जा सकता है.वहीँ दूसरी और देखें तो अधिकतर प्रसारित होने वाले वाले धारावाहिक यथार्थ के कोसों दूर होते हैं. जिनकी कहानी न तो आम इंसान से मिलती है और ना ही साधारणतः घटने वाली घटने वाली घटनाओं से कोई सरोकार रखती हैं. कभी कभी ये समझ नहीं आता की अगर ये लोग आम इंसान को या माध्यम वर्ग को ध्यान में रखकर ऐसे सीरियलों का निर्माण करते हैं तो उन्हें किस तरह जोड़ते हैं या फिर किस प्रकार के माध्यम वर्ग केन्द्रित करते हैं.कभी-कभी कुछ सवाल ऐसे भी उठने लगते हैं जिनके सवाल खुद उनके पास भी नहीं होते जैसे कि सोने के दौरान धारावाहिकों की महिलाओं की लिपस्टिक ख़राब क्यों नहीं होती है? उनकी साड़ियों पर कभी सलवटें क्यों नहीं पड़ती हैं? वो इतने गहने पहन कर सो कैसे लेती हैं? आज की इस भाग दौड़ भरी जिंदगी में कैसे कोई हर वक्त अपना सारा काम छोड़ कर बदला लेने के लिए सोच सकता है? कैसे कोई इंसान इस दौड़ती दुनिया में दस सालों तक अपने बदले का इंतज़ार कर सकता है?
खैर ये तो अलग बात है, लेकिन सोचने वाली बात ये है की पिछले दस सालों से धारावहिकों की दुनिया में कोई खास तब्दीली नहीं आई है. कहानियां शुरू कहीं से भी हों लेकिन ख़तम एक ही जगह जाकर होती हैं. सभी कहानियां लगभग एक ही तरीके से चलती हैं. माना की छोटा पर्दा महिलाओं को ध्यान में रखकर चलाया जाता है. लेकिन क्या आज की महिला वैसी ही है जैसी दस साल पहले थी? ये मुद्दा सोचने वाला है...क्योंकि बदलते परिवेश में सोच भी उसी तरह बदली है. हाँ इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सोच उतनी नहीं बदली है. लेकिन इस बात को भी ध्यान रखना चाहिए की मास मीडिया केवल मनोरंजन परोसने का साधन मात्र नहीं है जनमत निर्माण का एक सशक्त साधन भी है.
कहने को मास मीडिया का काम समाज दर्शाना है, समाज को परिलक्षित करना है. लेकिन अगर आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो हम कुछ और ही पाते हैं और ऐसे में धारावाहिकों के सन्दर्भ में बात करें तो आज धारावाहिक मात्र टेलीविज़न उद्योग मात्र बन कर रह गए हैं. क्योंकि अगर किसी भी धारावाहिक को पकड़कर बात की जाये तो देखा जा सकता है कि सीरियल बनाने वालों ने जिस प्रकार टेलीविज़न को एक फैक्टरी बनाया है. पैसा कमाने का उसमे हर प्रकार का प्रोडक्ट बेचा जा रहा है या ये कहें की धारावाहिकों ने बिज़नेस की आढ़ में पूरी तरह कर्तव्य परायणता की चादर ओढ़ ली है. एकाध धारावाहिक को छोड़कर देखा जाये तो कोई भी धारावाहिक ऐसा नहीं है जो अपनी सामाजिक भूमिका निभा रहा हो.
आज धारावाहिकों में रंगबिरंगी और कीमती साड़ियों के अलावा कोई सन्देश नहीं देखा जा सकता है.वहीँ दूसरी और देखें तो अधिकतर प्रसारित होने वाले वाले धारावाहिक यथार्थ के कोसों दूर होते हैं. जिनकी कहानी न तो आम इंसान से मिलती है और ना ही साधारणतः घटने वाली घटने वाली घटनाओं से कोई सरोकार रखती हैं. कभी कभी ये समझ नहीं आता की अगर ये लोग आम इंसान को या माध्यम वर्ग को ध्यान में रखकर ऐसे सीरियलों का निर्माण करते हैं तो उन्हें किस तरह जोड़ते हैं या फिर किस प्रकार के माध्यम वर्ग केन्द्रित करते हैं.कभी-कभी कुछ सवाल ऐसे भी उठने लगते हैं जिनके सवाल खुद उनके पास भी नहीं होते जैसे कि सोने के दौरान धारावाहिकों की महिलाओं की लिपस्टिक ख़राब क्यों नहीं होती है? उनकी साड़ियों पर कभी सलवटें क्यों नहीं पड़ती हैं? वो इतने गहने पहन कर सो कैसे लेती हैं? आज की इस भाग दौड़ भरी जिंदगी में कैसे कोई हर वक्त अपना सारा काम छोड़ कर बदला लेने के लिए सोच सकता है? कैसे कोई इंसान इस दौड़ती दुनिया में दस सालों तक अपने बदले का इंतज़ार कर सकता है?
खैर ये तो अलग बात है, लेकिन सोचने वाली बात ये है की पिछले दस सालों से धारावहिकों की दुनिया में कोई खास तब्दीली नहीं आई है. कहानियां शुरू कहीं से भी हों लेकिन ख़तम एक ही जगह जाकर होती हैं. सभी कहानियां लगभग एक ही तरीके से चलती हैं. माना की छोटा पर्दा महिलाओं को ध्यान में रखकर चलाया जाता है. लेकिन क्या आज की महिला वैसी ही है जैसी दस साल पहले थी? ये मुद्दा सोचने वाला है...क्योंकि बदलते परिवेश में सोच भी उसी तरह बदली है. हाँ इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सोच उतनी नहीं बदली है. लेकिन इस बात को भी ध्यान रखना चाहिए की मास मीडिया केवल मनोरंजन परोसने का साधन मात्र नहीं है जनमत निर्माण का एक सशक्त साधन भी है.
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