Saturday, 26 December 2015

कागज़ और हस्ताक्षर

 रूमानियत से ऊब कर,
सपने बिखर कर टूटने लगे हैं..
सावन की आस में,
बनास के पार टूट चले हैं,
ऐसे में कुछ दिन और सम्हाल  लो
शायद.....
जीवन के कागज़ से
सांसों के हस्ताक्षर मिटने लगे हैं.

इस चीखती ख़ामोशी के शोर से,
लबों के ताले टूट चले हैं,
क्यों है ये रंजिश-ए-दिल्लगी?
दरम्यान दूरी के जाले बुन ने लगे हैं.
ऐसे में कुछ दिन और सम्हाल लो
शायद....
जिंदगी के कागज़ से,
सांसों के हस्ताक्षर मिटने लगे हैं.

क्यों ये फितरत और नफरत के,
ग़ुबार उठने लगे हैं ?
अब तो वक्त की भी हैसियत नहीं,
ऐसे ख़याल छंटने लगे हैं,
ऐसे में कुछ दिन और सम्हाल लो
शायद....
जिंदगी के कागज़ से
सांसों के हस्ताक्षर मिटने लगे हैं.

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