मुंबई की भागदौड़ भरी ये ज़िन्दगी,
जहाँ रुकना तब होता है जब आप हार जाते हैं,
इसी भागदौड़ में, मैं तुमसे मिलती हूँ,
गली के एक किनारे पर बैठे होते हो,
एक कट्टा बिछा कर,
ताम्बे सा रंग, और मासूम सी शख्सियत,
वहीँ
सर्दी का मौसम और तुम्हारा गिरता हुआ शरीर,
जो गीले बेंत की तरह मुड गया है,
ये दिसम्बर की सुबह है, सर्द हवा चल रही है,
रोजाना की तरह में ऑफिस के लिए भाग रही हूँ,
अचानक दूर से नज़र तुम पर पड़ती है,
आज जेब में सिर्फ दस रुपये थे,
जिसका टिकेट ले लिया था ,
सोचा अब तुम्हे क्या दूंगी,
गली के कोने में,
इस सर्द सुबह में न जाने
कब से उघारे बैठे हुए हो,
जद्दोजहद कर रहे हो अपनी बुशर्ट से,
लोग आ जा रहे हैं, तुम्हे देख भी रहे हैं,
लेकिन देख कर अनदेखा भी किये जा रहे हैं,
और चले जा रहे हैं अपने गंतव्य की ओर,
तुम्हारे पास पहुँच कर देखती हूँ कि,
शर्ट का एक बटन लगा हुआ है,
मैं बैठ कर वो बटन खोल देती हूँ,
लेकिन पाती हूँ कि शायद तुम देख नहीं सकते,
दिल धक् से रह जाता है,
लेकिन शर्ट पहना कर
उसके बटन लगाती हूँ,
बाजु में एक टोपा,एक रुमाल,
और फटी हुई सी शाल रखी है,
पहना कर,
जैसे ही जाने के लिए खड़ी होती हूँ,
तुम्हारे हाथ मेरे पैर छूं लेते हैं,
मैं शायद बयां नहीं कर सकती,
मेरे दिल पर क्या गुज़रती है उस वक्त,
मैं चुपचाप आगे बढ़ जाती हूँ,
एक भारी मन के साथ,
रोजाना सुबह तुम्हे देखती हूँ,
तुमसे बातें करना चाहती हूँ,
सुबह की दिनचर्या में,
तुम भी कहीं न कहीं शामिल थे,
लेकिन पिछले आठ दिनों से,
तुम शायद आये नहीं, दिखाई नहीं पड़ते ,
स्टेशन से निकलते वक्त,
रोजाना ऑंखें तुम्हे खोजती हैं !!
मैं उम्मीद करती हूँ;
तुम जहाँ भी हो ठीक होंगे !!
जहाँ रुकना तब होता है जब आप हार जाते हैं,
इसी भागदौड़ में, मैं तुमसे मिलती हूँ,
गली के एक किनारे पर बैठे होते हो,
एक कट्टा बिछा कर,
ताम्बे सा रंग, और मासूम सी शख्सियत,
वहीँ
सर्दी का मौसम और तुम्हारा गिरता हुआ शरीर,
जो गीले बेंत की तरह मुड गया है,
ये दिसम्बर की सुबह है, सर्द हवा चल रही है,
रोजाना की तरह में ऑफिस के लिए भाग रही हूँ,
अचानक दूर से नज़र तुम पर पड़ती है,
आज जेब में सिर्फ दस रुपये थे,
जिसका टिकेट ले लिया था ,
सोचा अब तुम्हे क्या दूंगी,
गली के कोने में,
इस सर्द सुबह में न जाने
कब से उघारे बैठे हुए हो,
जद्दोजहद कर रहे हो अपनी बुशर्ट से,
लोग आ जा रहे हैं, तुम्हे देख भी रहे हैं,
लेकिन देख कर अनदेखा भी किये जा रहे हैं,
और चले जा रहे हैं अपने गंतव्य की ओर,
तुम्हारे पास पहुँच कर देखती हूँ कि,
शर्ट का एक बटन लगा हुआ है,
मैं बैठ कर वो बटन खोल देती हूँ,
लेकिन पाती हूँ कि शायद तुम देख नहीं सकते,
दिल धक् से रह जाता है,
लेकिन शर्ट पहना कर
उसके बटन लगाती हूँ,
बाजु में एक टोपा,एक रुमाल,
और फटी हुई सी शाल रखी है,
पहना कर,
जैसे ही जाने के लिए खड़ी होती हूँ,
तुम्हारे हाथ मेरे पैर छूं लेते हैं,
मैं शायद बयां नहीं कर सकती,
मेरे दिल पर क्या गुज़रती है उस वक्त,
मैं चुपचाप आगे बढ़ जाती हूँ,
एक भारी मन के साथ,
रोजाना सुबह तुम्हे देखती हूँ,
तुमसे बातें करना चाहती हूँ,
सुबह की दिनचर्या में,
तुम भी कहीं न कहीं शामिल थे,
लेकिन पिछले आठ दिनों से,
तुम शायद आये नहीं, दिखाई नहीं पड़ते ,
स्टेशन से निकलते वक्त,
रोजाना ऑंखें तुम्हे खोजती हैं !!
मैं उम्मीद करती हूँ;
तुम जहाँ भी हो ठीक होंगे !!
4 comments:
शब्दों का मोहताज हूं। इसे कितनी ही बार स्क्रॉल कर पढ़ चुका हूं पर दिल है कि बार-बार पढ़े जा रहा है। हमारी नज़रें और ये हजारों किलोमीटर में फैली सड़कें ही कविताओं को गढ़ती हैं। वाह डॉली शानदार!
इस कविता के माध्यम से दिल को छू लिया आज ... इतनी कम उम्र में इतनी गहरी संवेदना।
जितना समझा उस से कही ज्यादा गहरी हो तुम। यकीनन अपार संभावनाओं वाली लेखिका हो तुम। शुभाशीष
तह-ए-दिल से धन्यवाद अभिषेक सर .... आपका आशीर्वाद बना रहे :)
शर्मा साब .... एक अरसे बाद कविता लिखी है ..... हौसला अफ़ज़ायी के लिए बेहद शुक्रिया :)
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