आज के ज़माने को देखा जाये
तो सोच ये बना ली गयी है की असली औरत या तो किरण बेदी है या फिर कल्पना चावला, या
तो वो इंदिरा गाँधी है या फिर सुनीता विलियम्स...जिसने दुनिया फ़तेह कर ली है....दरअसल
इसमें दोष किसी का नहीं है. हमने पश्चिम की विचारधारा के पीछे पड़कर घर की औरतों की
अहमियत को दरकिनार कर दिया है. जबकि हम ये भूल गए हैं की समाज की प्रत्येक औरत
की अपनी एक अलग अहमियत है. फिर चाहे वो किसी भी रूप में हो. महिलाओं को तिरस्कार
की नज़र से देखने की प्रथा आज की नहीं है. समाज में किसी भी महिला को इसलिए
तिरस्कार नहीं दिया जा सकता है की वह इंदिरा गाँधी या किरण बेदी नहीं बन पाई.
लोगों को क्या लगता है एक अगली पीढ़ी को पाल पोसकर
तैयार करना और घर को संजो कर रखना कोई खिलौनों से खेलने वाली बात है. और इस
बात में सबसे बड़ा दुःख तब होता है जब इस इस अहम भूमिका को नीचा दिखाने में औरतें
ही पीछे नहीं रहती.
आज भले ही समाज का एक छोटा तबका महिलाओं की तरक्की
पर रोक लगा रहा हो. अक्सर उनके पहनावे पर भी सवाल उठता है . दरअसल हम अब
बुद्धिजीवी होकर किसी पहनावे की नक़ल करते हैं तो साफ़ तौर पर आपके ऊपर सवाल उठेंगे.
क्योंकि ये सच है की उसे पहनने का आपको ठीक से सलीका भी नहीं मालूम है.ऐसा नहीं है
की हमारे समाज में नग्नता नहीं है...दिगंबर सन्यासी सड़कों पर नग्न होकर चलते हैं,
लेकिन उन पर सवाल नहीं उठता. कश्मीर की छल दद पूरी तरह नग्न घूमी थी. लेकिन समाज
ने उन्हें सर आँखों पर उठाया था. किसी महिला के लिए सजना संवारना गुनाह नहीं है
लेकिन एक पुरुष आपको अपने भोग की वास्तु अथवा सम्मानित स्त्री के रूप में देखता
है. ये बहुत हद तक आपकी शारीरिक भाषा पर
निर्भर होता है.
बात अगर महिलाओं के
अधिकारों की करें तो बुंदेलखंड अंचल के अधिकारी गुलाबी गैंग के नाम से ही डर जाते
हैं. दरअसल ये एक ऐसा संगठन है है जो चूल्हे-चौके का काम निबटा कर महिलाओं के हकों
के लिए लडती हैं. हद तो तब है जब इस गैंग की कमांडर संपतपाल देवी को उत्तर प्रदेश
सरकार ने नक्सली करार दे दिया. इस महिला का नाम जब दुनिया की 100 प्रेरक
महिलाओं के नाम की सूची में शामिल किया गया तब देश के लोगों को पता चला की इस
महिला का नाम संपत पाल है. जिन्हें बिग-बॉस के सीज़न-6 में भी देखा गया. बहरहाल एक
मामूली सी चाय की गुमटी चलाने वाले व्यक्ति की गृहणी महिला विश्व विख्यात हो सकती
है. और महिला सशक्तिकरण के लिए इतना बड़ा कदम उठा सकती है. तो ऐसे में क्या किसी भी
आम महिला को साधारण समझा सकता है?
वहीँ दूसरी और गृहणियों का एक और उदारहरण मैं
यहाँ देना चाहूंगी. भारत में पेयजल की समस्या दिन-ब—दिन बढती ही जा रही है, और इस
से सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं महिलाएं.खासकर ग्रामीण महिलाएं जिनके दिन की
शुरुआत ही इस समस्या से दो चार होने से होती है. ऐसा मन जाता है की ग्रामीण
महिलाओं के 3-9 घंटे इस के बंदोबस्त में गुज़र जाते हैं. बुंदेलखंड के ग्रामीण
क्षेत्रों में पानी की समस्या विकराल है. और इसी समस्या से निबटने के लिए यहाँ की
महिलोंओं ने एक नयी और अनोखी पहल की है. और जिसके सकारात्मक नतीजे भी सामने आयें
हैं.यहाँ के लगभग 96 गाँव की महिलाओं ने मिलकर ‘पानी-पंचायत’ का गठन किया है.
जिसके अंतर्गत इन महिलाओं ने ज्यादा से झाडा जलस्त्रोत पैदा करने और पुनाने
जलस्त्रोतों का जीर्णोद्धार करने का सफल प्रयास किया है. ताकि मूलभूत अधिकार के
तौर पर उन्हें पीने का पानी मिल सके. ऐसे में ये सभी महिलाएं गृहणियां ही हैं. आज
इन महिलाओं की तपस्या ने इस योजना को उस अंजाम तक पहुँचाया है जो एक मिसाल बन सके.
वहीँ अगर बार ग्लेमर की चमक-धमक भरी दुनिया की
बात करें तो वहां की महिलाओं को घरेलु होने के सुख से ही वंचित कर दिया जाता
है.व्यावसायिक अनुबंध ही इतने हो जाते हैं की. ना तो वे मातृत्व का सुख भोग पाती
हैं और ना ही एक गृहणी होने का. ऐसे में सौंदर्य प्रतियोगिताएं में शामिल होने
वाली महिलाओं को इसी प्रकार के अनुबंधों के अंतर्गत ना जाने किन किन शर्तों और
नियमों का पालन करना होता है. फिल्म अभिनेत्रियों को अपनी शादी की तारीखों को बार
बार इसलिए बढ़ाना पड़ता है क्योंकि बाज़ार को शादीशुदा ‘हेरोइनें’ नहीं चाहियें. तो
यही सब देख सुन कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है की पढ़ी-लिखी,जागरूक महिलाओं को भी समाज
में कैसे कैसे लम्हों को जीना होता है और किस किस दौर से गुज़ारना होता है.
तो ऐसे में समाज की किसी भी महिला को अनदेखा या
तिरस्कार भरी निगाहों से नहीं देखा जा सकता. क्योंकि समाज की प्रत्येक महिला की एक
अहम् भूमिका होती है. फिर चाहे वह पढ़ी लिखी हो या न हो. हाँ महिलों को अपने
अधिकारों और सशक्तिकरण के प्रति हमेशा सजग और जागरूक रहना ज़रूरी है. ताकि उनका
शोषण ना हो सके. और वे भी अपना सतत विकास कर सकें.
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